Tuesday, 15 March 2016

न्यायिक नियुक्तियां और पारदर्शिता

                                              न्यायिक नियुक्तियां और पारदर्शिता 


न्यायिक सुधारों को लागू करने के लिए सरकार ने राज्य सभा में 120 वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया, जिस पर चर्चा 5 सितम्बर 2013 को शुरू हुई,यह विधेयक उच्च न्यायलय एवं उच्चतम न्यायलय में न्यायधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में है,नियुक्ति को लेकर कोलेजियम प्रक्रिया पर पारदर्शिता से सम्बंधित समस्याओं को लेकर सरकार ने यह विधेयक पेश किया है.
संविधान में पहले से ही न्यायधीशों की नियुक्ति के लिए अनुच्छेद 124 को बनाया गया है,जिसके तहत उच्चतम न्यायलय के न्यायधीशों की नियुक्ति तो राष्ट्रपति करेंगे  परन्तु इस पर उनका  कोई विवेकाधिकार नहीं है,अनुच्छेद 124 (2) कहता है कि राष्ट्रपति न्यायधीशों की नियुक्ति उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के ऐसे न्यायधीशों से परामर्श करके करेंगे जिनसे परामर्श लेना वो उचित समझे।संविधान ने कार्यपालिका को इस सम्बन्ध में आत्यांतिक शक्ति नहीं दी है।
यद्यपि 60 के दशक तक परामर्श को मात्र परामर्श ही समझा जाता था, परन्तु बाद के समय में माननीय उच्चतम न्यायलय के विभिन्न निर्णयों ने इसे बाध्यकारी परामर्श का रूप दे दिया अतः राष्ट्रपति के द्वारा परामर्श का माना जाना लगभग बाध्यकारी ही हो गया.
अनुच्छेद 124 में मुख्य न्यायमूर्ति की वरिष्ठता का वैसे तो कोई भी उल्लेख नहीं है बावजूद इसके परम्परा के तहत लगातार 22 वर्षों से मुख्य न्यायमूर्ति की नियुक्ति के समय वरिष्ठता का भी ध्यान रखा जाता था, परन्तु 1956 में विधि आयोग ने अपने एक सुझाव में वरिष्ठता के साथ साथ "गुणों और उपयुक्तता" पर भी जोर दिया था, परन्तु सरकार के द्वारा यह सुझाव माना नहीं गया.लेकिन आने वाला वर्ष 1973 भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए ऐतिहासिक होने वाला था क्योंकि 25 अप्रैल 1973 को जब केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य का मामला प्रकाश में आया तो उसमे कोर्ट ने जो अपना निर्णय सुनाया तो इसके कुछ ही घंटों के अन्दर ही 22 वर्षों से चली आ रही,न्यायधीशों की वरिष्ठता वाली परंपरा पर कुठाराघात करते हुए तत्कालीन इंदिरा सरकार ने तीन वरिष्ठ जजों -न्यायमूर्ति जे.एम् शेलट ,एस के हेगड़े ,और  एस एन ग्रोवर की वरिष्ठता क्रम की उपेक्षा ही कर दी और न्यायमूर्ति अजित नाथ राय को मुख्य न्यायमूर्ति की पदवी से नवाज दिया जिससे "कंट्रोलिंग द जुडिसियरी" युग का आरम्भ हुआ ,परन्तु 1977 में जब जनता सरकार आई तो इस युग की प्रथा में सेंध लग गयी,और इस सेंध पर शेष पूरा कार्य 1993 में खुद उच्च न्यायलय ने कर दिया।
इंदिरा सरकार के उपर्युक्त निर्णय की संसद और पूरे देश में बहुत ही तीव्र आलोचना हुयी और बचाव में इंदिरा सरकार के द्वारा बहुत से दलीलें भी दी गयीं,एक नया दर्शन भी संसद में लाया गया जिसे "न्यायधीशों का सामाजिक दर्शन" के नाम से जाना जाता है ,इसमें सरकार ने कहा की उसे न्यायधीशों को नियुक्त करते समय उनके सामाजिक,आर्थिक,राजनैतिक दृष्टिकोण पर भी विचार करने का अधिकार है जो कि एक बेतुकी बात ही प्रतीत हुयी इन सब बातों से यही प्रतीत हो रहा था कि इंदिरा सरकार न्यायपालिका को अपनी पार्टी की विचारधारा का पिछलग्गू बनाना चाहती थी.जो की सर्वथा  अनुचित था क्योंकि न्यायधीशों के द्वारा संविधान में विहित "सामाजिक दर्शन" का अनुसरण ही सर्वथा उचित है तभी वे संविधान के माध्यम से समाज को न्यायिक सुरक्षा प्रदान कर सकेंगे।इंदिरा सरकार अपने बचाव में एक ऐसी भी दलील देती नज़र आई जो देश को और संसद को गुमराह करने जैसा था.सरकार के तत्कालीन विधि मंत्री ने अन्य देशों विशेषकर ब्रिटेन से तुलना करते हुए कहा कि वहां वरिष्ठता को आधार नहीं माना जाता परन्तु मंत्री महोदय के द्वारा यह जानकारी छिपा दी गयी कि ब्रिटेन में विधिमंत्री; मुख्य न्यायमूर्ति की नियुक्ति करते समय अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायधीश और वकील संघ की सलाह अवश्य लेता है न कि अपनी पार्टी की विचारधारा से प्रभावित व्यक्ति को मुख्य न्यायधीश नियुक्त करता है.
सरकार के इस दृष्टिकोण पर जिससे संवैधानिक ढांचा चरमरा सकता था ! इस दृष्टिकोण पर 1977 में जनता पार्टी द्वारा ही रोक लगा दिया गया था.और उसी समय पुराना नियम जो की वरिष्ठता का पैमाना था बहाल हो गया था.लगभग इसी समय न्यायमूर्ति पी एन भगवती ने न्यायधीशों के स्थानान्तरण के मामले में चिंता व्यक्त करते हुए आस्ट्रेलिया की भाँति  न्यायमूर्तियों की नियुक्ति के लिए एक न्यायिक समिति की नियुक्ति की सलाह दी.
एक बात याद दिलाते चले की 1973 की संवैधानिक चोट जिसपर 1977 में मरहम लगाया गया था को अब एक फाइन टच देना शेष था. जो की सर्वोच्च न्यायलय द्वारा 1993 में "एस सी एडवोकेट ओन रेकोर्ड बनाम भारत संघ" के मामले के माध्यम से दिया गया.इसमें न्यायालय ने "एस पी गुप्ता बनाम भारत संघ" के अपने एक पूर्व निर्णय को पलट दिया जिसमे कहा गया था कि न्यायधीशों की नियुक्ति और स्थानान्तरण के विषय में सरकार को पूर्ण शक्ति प्राप्त है और पलटते हुए यह स्थापित किया गया की इस मामले में उच्चतम न्यायलय के मुख्य न्यायमूर्ति का निर्णय ही अंतिम निर्णय होगा और भारत के मुख्य न्यायधीश के पद पर उच्चतम न्यायलय के वरिष्ठतम न्यायधीश की ही नियुक्ति की जायेगी।1993 के निर्णय को मजबूती देने का कार्य किया 1999 के "री प्रेसिडेंशियल रिफरेन्स" मामले ने, जो की एक प्रसिद्द मामला था और उच्चतर  न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति से सम्बंधित था.इस मामले में न्यायालय ने स्थापित किया कि नियुक्ति और स्थानांतरण के मामले में 1993 के निर्णय में स्थापित परामर्श प्रक्रिया का पालन किये बिना मुख्य न्यायाधीश द्वारा की गयी सिफारिशों को मानने को कार्यपालिका बाध्य नहीं है वास्तव में यह मामला प्रकाश में तब आया जब भारत के राष्ट्रपति के आर नारायणन ने अनुच्छेद 143 के अधीन उच्चतम न्यायलय से 9 प्रश्नों पर सलाह मांगी,राष्ट्रपति के द्वारा पूछा गया कि; क्या वे न्यायधीशों की नियुक्ति के मामले में मुख्य न्यायधीश द्वारा भेजी गयी सिफारिशों को जो अन्य न्यायधीशों से परामर्श किये बिना भेजी  गयी है मानने के लिए बाध्य है ? तो उसके उत्तर में न्यायलय ने  उपर्युक्त निर्णय से स्थापित निर्वचन को ही उपयुक्त माना।
इस समस्या के बीज छिपे थे पूर्व मुख्य न्यायमूर्ति एम् एम् पुंछी  की मनमानी सिफारिशों पर जो उन्होंने सरकार को बिना अन्य न्यायधीशों के परामर्श के ही भेज दिया था, जिसे सरकार ने रोक कर उच्चतम न्यायलय से उपर्युक्त सम्बन्ध में सलाह मांगी थी।
उपर्युक्त न्यायिक नियुक्ति से सम्बंधित अनियमितताओं के कारण जो कि संविधान के प्रभावी होने के बाद मानवीय भूलों के कारण आरम्भ हो गयी थी, की वजह से ही जन्म हुआ एक राष्ट्रीय न्यायिक समिति की आवश्यकता का। सर्वप्रथम यह मांग 1980 में पी एन भगवती के द्वारा सुझाव के रूप में की गयी,और बाद में इसी मांग को 1990 में नेशनल फ्रंट सरकार के विधि मंत्री श्री दिनेश गोस्वामी ने आगे बढ़ाते हुए एक विधेयक प्रस्तुत किया ,जो कि  लोक सभा भंग होने के कारण स्वतः समाप्त हो गया था.इसके पहले 1987 में विधि आयोग भी सुझाव दे चुका था परन्तु वह स्वीकार नहीं किया गया (इस सुझाव में समिति के लिए 9 सदस्यों को सम्मिलित करने की सिफारिश की गयी थी जिसकी अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायमूर्ति करते ,3 उच्चतम न्यायलय के न्यायधीश  ,3  उच्च न्यायलय के न्यायमूर्ति ,भारत के महाधिवक्ता ,एक प्रतिष्ठित विधिवेत्ता सहित क़ानून मंत्री शामिल थे )
नब्बे के दशक के मध्य में आई राजनैतिक आस्थिरता ने इसमें जो विराम लगाया था उसे तोड़ने का काम किया बेंकेटचलैय्या कमीशन ने, जिसे भारतीय संविधान के पुनर्विलोकन के लिए नियुक्त किया गया था.वेंकटचेलैय्या कमीशन ने राष्ट्रीय न्यायिक समिति का सुझाव दिया था जिसे सरकार ने कभी लागू नहीं किया।2003 में तत्कालीन विधि मंत्री अरुण जेटली ने इस विधेयक को पेश किया किन्तु लोकसभा भंग होने के कारण इस बात पर नहीं बढ़ा जा सका.अब जबकि इसे 120 वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में राज्यसभा में लाया गया है तो कुछ आशा है कि न्यायिक पारदर्शिता में इस कमीशन के बन जाने से और अधिक सुधार आएगा ,परन्तु सभी को इस न्यायिक समिति की व्यवस्था पर पूरा भरोसा नहीं है, भारत के पूर्व मुख्य न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर ने न्यायिक समिति का पुरजोर विरोध करते हुए कहा है कि उच्चतर स्तर पर न्यायधीशों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम (उच्चतम न्यायलय के लिए भारत के मुख्य न्यायमूर्ति की अध्यक्षता में 5 और उच्च न्यायलय के लिए वहां के मुख्य न्यायधीश सहित 3 सदस्यीय वरिष्ठतम न्यायधीशों का समूह ) प्रक्रिया ही सबसे उपयुक्त है क्योंकि इसमें नियुक्ति करते समय बहुत गहन विचार विमर्श किया जता है और यह अपने आप में पूर्णतया पारदर्शी प्रक्रिया है.यद्यपि न्यायमूर्ति कबीर पर भी गुजरात उच्च न्यायलय के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति भट्टाचार्य ने सर्वोच्च न्यायलय में उनकी नियुक्ति न किये जाने पर पक्षपात का आरोप लगाया था.
यह सच है कि न्यायिक समिति आज के दौर की आवश्यकता है, और यह भी सच है कि न्यायपालिका में प्रत्येक स्तर पर पारदर्शिता के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता है ,किन्तु हमें यह याद रखना होगा कि कहीं जल्दबाजी में लिए गए विधायिका के किसी निर्णय की वजह से पूरी दुनिया में अपनी स्वायत्तता के लिए प्रसिद्द हमारी न्यायपालिका को स्वतंत्रता के संकट से न जूझना पड़े.यह भी ध्यान रखना होगा कि कार्यपालिका के हस्तक्षेप से न्याय व्यवस्था बाधित ना हो,इस समस्या को ध्यान में रखते हुए हाल में सुप्रीम कोर्ट बार एसोसियेशन के अध्यक्ष  एम् एन कृष्णामणि ने कहा कि बार एसोसियेशन ऐसी न्यायिक समिति का विरोध करती है जिससे  कार्यपालिका के सदस्यों की उपस्थिति से न्यायपालिका की स्वतंत्रता बाधित हो.भारत के मुख्य न्यायमूर्ति पी सतशिवम ने भी आश्वासन दिया है कि सरकार की न्यायिक समिति बनाने की योजना पर विस्तृत चर्चा और विचार के बाद ही कोई निर्णय लिया जाएगा ,और किसी भी रूप में न्यायपालिका की स्वायत्तता को बाधित नहीं होने दिया जायेगा।
बार एसोसियेशन और मुख्य न्यायमूर्ति की चिंताओं और आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए इतने महत्वपूर्ण विधेयक को निश्चित ही स्थाई समिति में भेजकर महत्वपूर्ण कार्य पूरा किया जा चुका है इससे इस विधेयक में और महत्वपूर्ण विन्दुओं को सम्मिलित किये जाने की आशा है और यह विधेयक मील का पत्थर सिद्ध हो सकता है यदि इसके सभी स्टेक होल्डर्स की सलाह एवं  उनके पक्षों के साथ आगे कदम बढ़ाया जाये।न्यायिक उत्तरदायित्व व पारदर्शिता पर आधारित विधेयक पर राष्ट्र के सभी बुद्धिजीवियों ,विद्यार्थियों ,विद्वानों ,कानून विशेषज्ञों एवं पूर्व न्यायधीशों और साथ में विधायिका की सलाह के पक्षों के साथ चलने से ही न्यायिक व्यवस्था में बड़े सुधार संभव हो सकेंगे,अन्यथा यह विधेयक भी बस एक और विधेयक बन कर रह जायेगा।

धनलोलुप कोचिंग सस्थान : भावी लोक सेवक

                                                       


हमारे देश में गुरु की बहुत बड़ी महिमा है और गुरु या शिक्षक को बहुत सम्मान प्राप्त है ,क्योंकि शिक्षक छात्रों का अंशकालिक अभिभावक होता है अतः छात्रों की शिक्षा पर अध्ययन प्रक्रिया के अतिरिक्त शिक्षकों को प्रेरणा युक्त व्यवहार ,नियंत्रण,निश्चयात्मकता ,सुविधाओं को मुहैया कराना  आदि घटक भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं ,जो निश्चित ही छात्रों की शैक्षिक उपलब्धियों से सम्बंधित होते हैं !
इन्डियन असोसिएशन ऑफ़ टीचर्स एजुकेटर्स के नॅशनल सेक्रेटरी प्रोफ़ेसर एन,एन,पाण्डेय का कहना है की "उस दौर के शिक्षकों में जानने की ललक थी परन्तु अब के शिक्षक सब कुछ पा लेना चाहते हैं ",इसका अर्थ यह है की आज के शिक्षकों में प्रतिबद्धता नहीं है ,आज के शिक्षक डायनामिक है और शिक्षण व्यवसाय में संलग्न शिक्षक समुदाय के अन्दर निम्न नैतिकता एवं व्यावसायिक संतुष्टि एक चुनौती के रूप में दृष्टिगोचर हो रही है .यदि हम यहाँ अनुदानित विद्यालयों ,उच्च शिक्षण संस्थानों ,सरकारी विद्यालयों की बात छोड़ दें और उन निजी संस्थानों के रूप में कार्य कर रहे कोचिंग संस्थानों की बात करें तो एक बहुत ही चौंकाने वाली बात सामने आएगी जिन्हें हम सभी लोगों ने हमेशा नजरअंदाज किया है ,यहाँ हम उन कोचिंग संस्थानों की भी बात नहीं करेंगे जो माध्यमिक शिक्षा ,दसवीं ,ग्यारहवीं  और मेडिकल,इंजीनियर बनाने के लिए शिक्षा दे रहें हैं ,बल्कि हमें उन कोचिंग संस्थानों पर ध्यान देना है जो देश की सबसे प्रतिष्ठित परीक्षा में बैठने वाले छात्रों को कोचिंग देते हैं ,इलाहबाद में इन कोचिंग संस्थानों की स्थिति पहले से ही भयावह थी,परन्तु दिल्ली की स्थिति पर अब गौर करना आवश्यक हो गया है .कोचिंग संस्थानों की मनमानी को रोकने के लिए ही संघ लोक सेवा आयोग ने पाठ्यक्रम में बहुत ही आमूल चूल परिवर्तन किये हैं ,परन्तु कोई साफ़ दिशा निर्देश न होने से न तो विद्यार्थी समझ पा  रहे हैं की क्या करना है न ही  शिक्षक समझ पा रहे हैं की उन्हें क्या बताना है (वैसे संघ लोक सेवा आयोग हमेशा एक कदम आगे होता है और शिक्षक दो कदम पीछे) ,परन्तु फिर भी छात्र शिक्षकों के भरोसे ही हैं .ऐसे में शिक्षकों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है ,परन्तु बहुत तेजी से फैले इस व्यवसाय में पढ़ाने वाले शिक्षक वे लोग हैं जो किसी प्रकार सिविल सेवा में जाने में असफल रहे ,और इस व्यवसाय को चुना ,इस व्यवसाय में वे सफल भी हैं आर्थिक रूप से और जीवनयापन करने के स्तर से भी  परन्तु कुंठा अभी भी है इनमे .इसका कारण यही है की ये अपने आपको दिल्ली में स्थापित रखने और कोचिंग व्यवसाय में बने रहने ,दुसरे शिक्षक से अधिक फीस बढ़ा  देने और बाजार में अपनी किताब निकाल देने की होड़ में लगे रहते हैं .इस प्रकार वे शिक्षण कार्य को अपनी जिम्मेदारी नहीं समझ पाते और एक बहुत बड़ी फ़ौज जो आई ए एस ,पी सी एस और तमाम बड़े ओहदे को पाने का सपना लेकर आती है उसके साथ बहुत बड़ा प्रपंच खेलते हैं  है।हर वर्ष ये शिक्षक अलग अलग कार्यक्रम चलाते हैं जो साप्ताहिक टेस्ट से सम्बंधित होता है और इन टेस्ट पेपर्स को अपने उन छात्रों से तैयार करवाते हैं जो कभी प्रारंभिक परीक्षाओं को भी पास नहीं कर पाए ,ऐसे में उन टेस्ट की गुणवत्ता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है ,और यह प्रक्रिया हर नए छात्र को आकर्षित करने के लिए होती है पुराने छात्र बार बार धोखे मिलने पर गुणवत्ता के बारे में यह जान  जाते हैं की कौन से सामग्री उचित है और कौन से अनुचित,ऐसे में बहुत समय निकल चुका  होता है।और आई ए एस ,पी सी एस एक सपना बन जाता है 
दिल्ली में इन शिक्षण संस्थानों में शिक्षण कार्य के पीछे हॉस्टल का व्यवसाय भी चलता रहता है,जिनमे रहना छात्रों की मजबूरी है और आवश्यकता भी, पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रांगण  में कुछ छात्र-छात्राओं  ने अनशन किया था की उन्हें कम से कम में आवास सुविधा उपलब्ध कराई जाये ,परन्तु इन निजी संस्थानों अर्थात कोचिंग संस्थानों से सम्बंधित होस्टल्स में कोई सुनवाई नहीं है ये लोग भारत के निवासी भी हैं इस पर भी संदेह है ये लोग टैक्स की चोरी करते हैं बिजली का बिल 7रूपया प्रति यूनिट से लेते है ,बिल कभी नहीं देते हैं दो तीन साल पहले सिविल सर्विसेज की परीक्षा में बैठने वाले छात्रों ने भी एक रैली निकाली थी इनके विरोध में ,पर इन लोगों ने चप्पल जूते फेंक फेंक कर अपमानित किया था और साथ में बड़ी बड़ी धमकियाँ भी की कमरे का किराया बढेगा और बिजली का बिल भी ,नतीजा यह हुआ की भावी अधिकारी वर्ग शांत भाव से अध्ययन और अध्यापन में लग गया ,अब इतनी मुश्किल परिदृश्य में यदि शिक्षण सामग्री भी  धोखे देने वाली  हो तो सब कुछ अन्धकार में हो जाता है 
कुशल शिक्षक ही सर्वगुण संपन्न विद्यार्थियों एवं समाज का निर्माण कर सकता है ,वर्तमान समय में शिक्षकों की आर्थिक स्थिति बहुत तेजी से बदली है क्योंकि इन्होने अपनी फीस दोगुना कर दिया अचानक जो शिक्षक हिंदी और दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे वह सामान्य अध्ययन में सम्मिलित सारे  विषय(भूगोल गणित ,विज्ञान ,विज्ञानं और प्रौद्योगिकी संविधान तार्किक क्षमता,अंग्रेजी इतिहास राजनीती विज्ञानं,पर्यावरण) सब कुछ पढ़ाने लगे  और लोग एडमिशन भी लेने लगे ,लोक प्रशाशन पढ़ाने वाले शिक्षकों ने भी यह करना प्रारंभ कर दिया .ऐसे में गुणवत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगता है ,50हजार तक की फीस लेने वाले ये शिक्षक मात्र 3 महीने में पूरे विषय को पढ़ाने का दावा करते हैं जो मृग मरीचिका है .इन शिक्षकों का बहिष्कार होना चाहिए .
आर्थिक स्थिति बहुत मजबूत होने के कारण इनका स्वयं का व्यक्तित्व एवं शिक्षण कार्य प्रभावित हो रहा है  ये शिक्षक अन्य व्यवसाय भी शुरू कर रहे हैं ,अपने भविष्य को सुरक्षित करते हुए ये लोग छात्रों के साथ बहुत  बड़ा अन्याय कर रहे हैं . ऐसे में आवश्यक हो जाता है की समाज ऐसे शिक्षकों पर नजर रखे मुख्यतया वे छात्र जो इन बड़ी परीक्षाओं की तैयारी करना चाहते हैं 
इन शिक्षकों की विद्रूप  परंपरा को बढ़ावा मिला है कुछ समाचार पत्रों के द्वारा भी जो छात्रों में बहुत प्रसिद्द(द हिन्दू,दैनिक भास्कर,) है ,इन समाचार पत्रों में यदि इन कोचिंग संस्थानों को प्रचार मिल जाता है तो ऐसा लगता है की उन्हें उत्कृष्टता का प्रमाणपत्र  मिल गया है ,यह प्रचार दोनों तरफ से ही होता है ,कोचिंग संस्थान  कहते हैं की इनको पढो और समाचार पत्र  कहते हैं की इसमें पढो,यह कालचक्र जमींदार और किसान की तरह चलता रहता है ,पिछले दिनों एक शिक्षक के यहाँ जो हिंदी के प्रसिद्द शिक्षक हैं उनके यहाँ "कर अधिकारियों" का छापा पड़ा  जो अचानक से सामान्य अध्ययन पढ़ाने लगे थे .
ऐसे में सभी बिन्दुओं पर दृष्टिपात करें तो यह लगता है यहाँ जिन परम्पराओं का निर्माण हो रहा है की एक दुसरे की आर्थिक स्थिति देखकर लोग शिक्षक बन रहें है ,इनमे संवेदनहीनता है,और इतने बड़े वर्ग को जिन्हें ये लोग खड्ड में डाल रहें है ये देश के विकास में किस प्रकार सहायक होंगे?और गलती से अधिकारी बन भी गए तो ऐसे अनैतिक लोगों से देश में क्या संस्कार पैदा होगा ,ध्यान देने पर यह स्पष्ट हो जाता है की हमारी शिक्षण संस्थाओं,शैक्षिक पाठ्यक्रमों एवं शिक्षा की पद्धति में कहीं न कहीं कोई असंगतता अवश्य है जिसके कारण हमें ऐसे समाज का दर्शन हो रहा है ,और जिसमे आई ए एस ,पी सी एस,जैसे जिम्मेदारी भरे पदों पर आसीन होने वाले लोगों की तैयारी करवाने वाले शिक्षक ऐसे व्यक्तित्व का परिचय दे रहें हैं जिनमे पूरी अराजकता अशांति,स्वार्थ,कुंठा ,और अपने को सम्पूर्ण समझने का प्रयास है क्योंकि ये शिक्षक समाज में अनैतिक कार्य और इतनी कमियों के बाद भी बहुत प्रसन्न दिखाई देते है 

Wednesday, 15 January 2014

धर्म का अपमान नहीं बल्कि सम्मान

प्रिय पत्थलगांव वासियों,कुछ दिनों पहले यह सुनने में आया कि अपने नगर पत्थलगांव में १ करोड़ रुपये की लागत से श्री श्याम मंदिर का निर्माण किया जा रहा है, सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ!! मैं सोचता था कि अब तो लोग कुछ समझदार हो रहे हैं और धर्म के नाम पर अपनी दूकान चालने वालों से सावधान रहने लगे हैं पर इस घटना ने मुझे इस बारे में फिर से सोचने पर विवश कर दिया है.

मैंने कुछ मित्रों से इस बात पर चर्चा भी की है कि आपको नहीं लगता कि पत्थलगांव को श्याम मंदिर से पहले मुलभुत सुविधाओं की ज्यादा जरुरत है?? लगभग सभी का उत्तर हाँ में ही था लेकिन चाहते हुए भी उनमे से कोई भी यह साहस नहीं कर सका कि इसके खिलाफ आवाज़ उठाये या फिर कम से कम अपनी बात श्री श्याम मंदिर निर्माण समिति के लोगों तक पहुंचाए, ये लोग डरते हैं न या तो भगवान् से या फिर अपने घर वालों से कि कहीं उनकी so called धार्मिक आस्था को ठेस ना पहुँच जाए.

दोस्तों आप ऐसे चीज़ों पर इतनी बड़ी राशि खर्च करते समय ये क्यूँ भूल जाते हैं कि आपके नगर में १०० बिस्तरों वाला अस्पताल है लेकिन वो सिर्फ चिकित्सकों की कमी के कारण उपयोगी सिद्ध नहीं हो पा रहा, आप यह क्यूँ भूल जाते हैं कि जब आपके परिवार में किसी बच्चे का आगमन होने वाला होता है तो आप १ महीने पहले से ही ये सोचने लगते हैं कि कुनकुरी (करीब ७० किलोमीटर दूर) अस्पताल ले जाना ठीक रहेगा या फिर अम्बिकापुर (करीब ८५ किलोमीटर दूर) लेकिन जब बात आपके CSR (वह पैसा जो आप अपनी आय में से जन कल्याण के लिए खर्च करते हैं) को खर्च करने की आती है तो आपका ध्यान मंदिर, दुर्गा पूजा, अपने पूर्वजों की जयंती इत्यादि की तरफ ही जाता है, आप चिकित्सकों की अनुपलब्धता के लिए सरकार को जरुर दोषी ठहराते रहेंगे लेकिन आपके दिमाग में कभी यह नहीं आएगा कि इस १ करोड़ रुपये से मंदिर बनाने के बजाय क्यूँ न इसे बैंक में जमा करके इसके ब्याज से हम स्वयं एक चिकित्सक की व्यवस्था करें??

भले ही पथलगांव ने राज्य स्तरीय भाजपा अध्यक्ष, क्षेत्रीय सांसद से लेकर विधान सभा में उपनेता जैसे कद के भी राजनेता दिए हैं लेकिन यहाँ मूलभूत सुविधाओं का हाल किसी से छिपा नहीं है. NH - 78 भी पथलगांव के बीच से जाता है लेकिन उसके गड्ढे देखके यही लगता है कि अगर यह NH के बजाय प्रधानमंत्री ग्राम सड़क में आ जाता तो ही इसकी हालत ज्यादा अच्छी होती लेकिन बात सिर्फ यह नहीं है कि सरकार क्या क्या कर रही है, किधर कितना भ्रष्टाचार है, उससे ज्यादा महत्वपूर्ण तो यह है वहां के नागरिक स्वयं पत्थलगांव के विकास में कितनी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं. आज दुर्गा पुजन हो, अग्रसेन जयंती हो या फिर श्री गुरुनानक जयंती हो तो लाखों रुपये इकठ्ठा होने में समय नहीं लगेगा, यही नहीं इनके बीच प्रतिस्पर्धा भी होगी कि कौन कितना सुन्दर मूर्ति, पंडाल इत्यादि बना रहा है, आज ३१ दिसम्बर मनाना हो तो युवा हेल्प क्लब, मित्र क्लब इत्यादि पुरे जोश के साथ लाखों रुपये खर्च करके मनाएंगे लेकिन इस बात पे किसी का ध्यान नहीं जाएगा कि क्यूँ ना नगर पालिका के सामने वाले गड्ढे को भरने के लिए ५००० रुपये चंदे से इकठ्ठा करवाए और रोड ठीक करवा दें. दोस्तों इस लेख का उद्देश्य किसी धर्मं, पंथ आदि को ठेस पहुंचाना या गलत बताना नहीं है अपितु सिर्फ यह याद दिलाना है कि मुर्तिसेवा/धार्मिक आडम्बर से कहीं ज्यादा जरुरी मानव सेवा है

इस विषय पर हमारी ओर से एक प्रतीकात्मक तथा प्रश्नोत्तरी के रूप में एक छोटी सी कविता भी लिखी गयी है, वह भी आपसे शेयर कर रहा हूँ,

अजब हैरान हूँ भगवन, तुम्हे कैसे रिझाऊं मैं?
कोई वस्तु नहीं ऐसी जिसे सेवा में लाऊं मैं?
करूँ किस भांति आवाह्न,कि तुम  तो सर्वव्यापक हो?
निरादर है बुलाने को अगर घंटी बजाऊं मैं.
तुम्ही हो मोतियों में भी, तुम्ही व्यापक हो फूलों में,
भला भगवन को भगवन पर कैसे चढाऊं मैं?
लगाना भोग तुमको ये, इक अपमान करना है,
खिलाता विश्व को जो है, उसे कैसे खिलाऊं मैं?
तुम्हारी ज्योति से ज्योतित है, सूरज चाँद और तारे,
महा अंधेर है तुमको अगर दीपक दिखाऊं मैं.
भुजाएं हैं न गर्दन हैं, न सीना है न मस्ताकादी है,
तुम्हे निर्लेप नारायण, कहाँ चन्दन लगाऊं मैं?
बड़े नादान है वे जन, जो गढ़ते आपकी मूरत,
बनाते विश्व को तुम हो, तुम्हे कैसे बनाऊं मैं?
अजब हैरान हूँ भगवन तुम्हे कैसे  रिझाऊं मैं?
कोई वस्तु नहीं ऐसी, जिसे सेवा में लाऊं मैं.

Click here to listen in audio form

Irony of Superstitious Idol Worship well explained in this poem : (प्रश्तुत है मूर्तिपूजा की खोखली सच्चाई को उजागर करती यह कविता) :


http://www.youtube.com/watch?v=o4y8jNCu8FQ


आनंद रूप भगवन, किस भांति तुमको पाऊं?
तेरे समीप स्वामिन, मैं किस तरह से आऊँ?
अनुपम परम छबीले, बिन रंग रस रसीले,
कंटक सखा है फुलवा, क्या तेरे सर चढाऊं?
सुख मूल भक्ति रूपम्, मंगल कुशल स्वरूपम्,
घड़ियाल शंख को क्या, सम्मुख तेरे बजाऊं?
गंगा है तेरी दासी, सेवक है इन्द्र तेरा,
तेरे शरीर पर क्या, दो चुल्लू जल चढ़ाऊँ?
छोटे से दास तेरे, रवि चन्द्र हैं उपस्थित,
करते हैं नित उजाला, घृत दीप क्या जलाऊँ?
श्री लक्ष्मी हैं तेरी, निशिदिन की चरणचेरी,
ताम्बे का एक पैसा, मैं नाथ क्या चढाऊं?
आगम निगम से लेकर, मेधा सरस्वती तक,
गुण तेरा गा रहे हैं, क्या गाके मैं रीझाऊँ?
कोटा-नु-कोटि भूमि, उन पर असंख्य प्राणी,
जगदीश अपना नंबर मैं कौन सा गिनाऊँ?
आनंद रूप भगवन, किस भांति तुमको पाऊं?
तेरे समीप स्वामिन, मैं किस तरह से आऊँ?

Friday, 6 September 2013

अध्यादेश की राजनीति


संविधान ने सरकार को यह साहस  दिया है कि विपरीत और आवश्यक परिस्थितियों में जनहित में अध्यादेश के माध्यम से विधि निर्माण किया जा सके ,परन्तु जब यह साहस विभिन्न क्षेत्रीय हितों को तुष्टिकृत  करने में दुस्साहस में परिवर्तित हो जाता है,तो इससे संविधान की प्रतिष्ठा पर ठेस लगती है.जिससे मजबूत संविधान बहुत ही कमजोर प्रतीत होने लगता है .इन दिनों खाद्य सुरक्षा विधेयक पर चर्चा जोरों पर है सरकार जल्द ही इसे संसद में पेश कर सकती है इससे पहले ही सरकार अध्यादेश के रूप में जल्दबाजी में इसे ला चुकी है जिसमे जनहित कम सरकार के निजी स्वार्थ जो वोटों की महिमा पर आधारित हैं ज्यादा है.
वैसे तो सरकार को अपने नंबरों पर पूरा भरोसा है,जिसमे  कुछ भी करके पास करा लेंगे का दृष्टिकोण साफ़ है परन्तु यदि ऐसा नहीं हो सका तो संविधान का मान मर्दन करने को सरकार पहले से ही तैयार है.
बताते चले की संविधान का अनुच्छेद 123 कहता है कि  राष्ट्रपति को उस समय अध्यादेश द्वारा विधान बनाने की शक्ति है,जब उस विषय पर तुरंत ही संसदीय अधिनिमिति बनाना संभव नहीं है,उस स्थिति में सरकार जनहित में अध्यादेश लाती है परन्तु साथ ही अध्यादेश का जीवन काल पुनः समवेत होने की तारिख से 6 सप्ताह मात्र  ही  होता है,और इसके पश्चात यदि संसद इसे पारित नहीं करती है तो वह स्वतः निष्प्रभावी हो जाता है ऐसे में सरकार के पास एक मात्र रास्ता होता है जब अध्यादेश की अवधि समाप्त हो तो उसे दुबारा प्रख्यापित कर दिया जाए,परन्तु संविधान का 123 का खंड 1 यह कहता है "उस समय को छोड़कर जब संसद के दोनों सदन सत्र में हैं यदि किसी समय राष्ट्रपति का यह समाधान है की ऐसी परिस्थितियां विद्यमान हैं,जिनके कारण तुरंत कार्यवाई करना उसके लिए आवश्यक हो गया है तो यह ऐसे अध्यादेश प्रख्यापित कर सकेगा जो उन परिस्थितियों में अपेक्षित प्रतीत हों "परन्तु संविधान में 'तुरत कार्यवाई 'की कसौटी इतनी ही है की जिन परिस्थितियों के कारण विधान आवश्यक हो गया है वे इतनी गंभीर और आसन्न हैं की विधान मंडल को आहूत करने और विधान के सामान्य प्रक्रम में विधेयक को पारित कराने में जो विलम्ब लगेगा वह सहन नहीं किया जा सकता।परन्तु इस तकनीकी  भाषा का भरपूर दुरुपयोग सरकारों ने समय समय पर खूब  किया है,इसका एक साक्षात् उदाहरण डी सी वाधवा बनाम बिहार राज्य का मामला है ,इस मामले में एक याचिका कर्ता  ने उच्चतम न्यायलय में एक तथ्य प्रस्तुत किया जिसके तहत बताया गया की बिहार में 1967 से 1981 के बीच कुल 256 अध्यादेश जारी किये गए,और विधान मंडल से बिना अनुमोदित किये बार बार जारी करके अध्यादेश को 14 वर्षों तक बनाए रखा गया ,केंद्र सरकार भी लगातार इन अध्यादेशों को मंजूरी देती गयी, तब उच्चतम न्यायलय की 5 न्यायाधीशों की पीठ ने इसकी आलोचना की और कहा की "यह विधान मंडल की विधि बनाने की शक्ति का कार्यपालिका द्वारा अपहरण है जिसे ऐसा नहीं करना चाहिए।इस शक्ति का प्रयोग असाधारण परिस्थितियों में किया जाना चाहिए,राजनैतिक उद्देश्यों से नहीं" न्यायलय ने बिहार राज्य को यह निर्देश दिया कि डी सी वाधवा को उनके शोध के लिए 10 हजार रुपये दिए जाएँ।एक दूसरा मामला कूपर बनाम भारत संघ  का जिसमे उच्चतम न्यायलय ने यह मत दिया कि राष्ट्रपति के समाधान की वास्तविकता को न्यायालयों में संभवतः इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है की वह असद्भाव पूर्ण था.इस तरह भारत के उच्चतम न्यायलय ने कई अन्य मामलों में भी इन निर्णयों की पुष्टि की है ,ए के राय बनाम भारत संघ और ए वी नचाने बनाम भारत संघ के मामले।समय समय पर विभिन्न सत्तारूढ़ दल अध्यादेश के समर्थन में और विपक्षी दल विरोध में अपनी आवाज़ बुलंद करते रहे हैं,सत्तारूढ़ दलों को न्यायालयों का इस तरीके का हस्तक्षेप अपनी सत्ता पर प्रहार लगता रहा है इसलिए समय समय पर वे न्यायालयों के हाँथ बाँधने के प्रयास करती रही हैं. एक मामला उस समय का है जब श्रीमती इंदिरा गाँधी की सरकार 38वां संविधान संशोधन कर रही थी,जिसमे उन्होंने अनुच्छेद 123 में एक खंड जोड़कर अध्यादेश निर्माण में न्यायिक हस्तक्षेप को रोकना चाहा  था परन्तु आने वाली जनता  सरकार ने इस परिवर्तन को उलट दिया।हमारे यहाँ की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को देखकर ऐसा लगता है की अध्यादेश निर्माण की प्रक्रिया का ज्यादा दिनों तक दुरुपयोग नहीं हो सकेगा क्योंकि  विभिन्न विपक्षी दल और गैर सरकारी संगठन इसका विरोध करते रहे हैं जिसके कारण सरकार को इतनी आसानी से साहस नहीं हो सकेगा यहाँ तक की हमारी लोकसभा ने भी नियम बना कर यह अपेक्षा की है कि जब कभी सरकार किसी विधेयक से अध्यादेश को प्रतिस्थापित करेगी तो ऐसे विधेयक के साथ एक कथन होगा जिसमे उन परिस्थितियों को स्पष्ट किया जाएगा जिसके कारण अध्यादेश द्वारा तुरंत विधान बनाना आवश्यक हो गया था ,इस प्रकार विभिन्न संसदीय और जन दबावों के कारण सरकार द्वारा इस शक्ति के दुरुपयोग की सम्भावना को रोका जा सकेगा।वास्तव में लोकतंत्र में महती आवश्यकता यह है की जन समुदाय पर्याप्त रूप से शिक्षित हो,ताकि वह समझ सके की कब सरकार अपने हित साध रही है,और कब जनता के हितों को साध्य बना रही है.

Sunday, 24 February 2013

नारी तुम केवल देह हो। तुम्हारी देह में रूह भी है लेकिन उसे किनारे करके रखो। मर्द तुम्हारे जिस्म को महसूस करने की आकांक्षा रखते हैं। इसलिए तुम्हारी देह चमकती रहे, दमकती रहे। तुम अपने बालों में फूल लगाओ जिससे मदमाती खुशबू आती हो। तुम अपने नाखूनों को ऐसे रंगो मानो इंद्रधनूष के सातों रंग इसमें समा गए हों। तुम वह सब कुछ करो जो मर्दों को भाता है। नारी तुम केवल देह हो। तुम उपवन हो, प्रकृति हो, समंदर की लहरें हो, नदी की कलकल धारा हो तुम वह सब कुछ हो जिसमें मर्द विचरण करना पसंद करता है। नारी, तुम्हारा फर्ज है कि उस परमेश्वर मर्द को खुश रखने के लिए अपनी देह में पुष्प, पंख, नग, सीप, हीरे, मोती और सोना जड़ लो। तुम पौधा बन जाओ। तुम छाया दो और फल दो क्योंकि मर्द यही चाहता है।

औरत, तुम्हें न जाने क्या-क्या उपमा देकर हिन्दी फिल्मों की कमाई सौ करोड़ से ज्यादा हो गई है। कोई ‘राउडी राठौर’ के लिए तुम ‘नया माल’ हो। जो अपने सलमान भाई पर्दे पर किस नहीं करते हैं उनके लिए तुम ‘तंदूर मुर्गी’ हो। कल मिलकर आज भूल गई तो दगाबाज हो। उस मर्द के दिमाग में जो कुछ भी आएगा तुम्हें कहेगा। और तुम उसी में खुश रहोगी।

तुम उन मर्दों को खुश रखने में ही खुश रहोगी, गर्व करोगी। सच में नारी तुम केवल देह हो। सिनेमा तुम्हें बेचना जानता है, कला के और माध्यम भी तुम्हें बड़ी चालाकी से बेचना जानते हैं। कोई साहिर लुधियानवी आहत होकर रूह से कह बैठता है, ‘औरतों ने मर्दों को जन्म दिया और मर्दों ने उसे बाजार बना दिया।‘ जब सिनेमाई पर्दे पर तुम इठलाती और इतराती हो तो मर्दों की हिंसक निगाहें तुम्हारी कीमत पर विचार करती हैं। तुम्हारी खुशी बड़ी क्षणिक होती है कि तुम कलाकार हो। जब कला बाजार में खड़ी है, उस बाजार में तुम्हारी कलाकारी नहीं कलाबाजी देखी जाती है। कोई फिल्मकार महेश भट्ट ‘अर्थ’ ‘सारांश’ और ‘डैडी’ बनाकर उस बाजार के अनुशासन में इतना पारंगत हो जाता है कि वह एक नए ट्रेंड का जनक बन जाता है।

नारी तुमसे कहा जाता है कि कोई पत्रकार पूछे कि इस फिल्म में आप कितना दिखाएंगी तो आप कहना कि जितनी स्क्रिप्ट की डिमांड होगी। एक बेचारे प्रेमचंद थे जो आने वाले वक्त को नहीं पहचान पाए। वह यह कहते-कहते मर गए कि साहित्य महफिल की तवायफ नहीं है कि डिमांड पर काम करे। लेकिन नारी तुमसे कलाकारी नहीं कलाबाजी की डिमांड की जाएगी, कला के नाम पर, कला के लिए और कला के द्वारा कि आपको इस फिल्म में इतना दिखाना है। खुद को ‘माल’ से लेकर ‘तन्दूर मुर्गी’ तक बताना है। ‘मुर्गी’ किसी की मां, बहन नहीं होती है। उसे हर कोई उसी नजरिए से देखता है। नारी तुमसे कहा जाएगा कि ट्रेंड को बदल डालो। एक 12 साल का किशोर भी तुम्हें अपनी दीवार पर पोस्टर में लगाकर ‘तंदूर मुर्गी’ की तरह ललचाई नजरों से देखता रहेगा।

इस नियति की नियत को स्थापित करने के लिए कई तर्क दिए जाएंगे। कोई अनुराग कश्यप कहेगा कि दर्शकों को जो पसंद है वही वाजिब है। एक बच्चा जब बड़ा होता है तो उसकी पसंद को कौन निर्धारित करता है। उसे कौन बताएगा कि क्या अच्छा है, क्या बुरा। उसे समझाने में वक्त ही कहां दिया जाता है कि मनोरंजन क्या होता है? उसे कौन समझाए कि किसी प्रियंका चोपड़ा में जिस्म के अलावा भी कुछ है। किसी किशोर को कौन समझाए कि नंदिता दास को रेप पीड़िता का रोल ही क्यों दिया जाता है।

उसे किसी स्कूल में क्या यह शिक्षा दी जाती है कि सिनेमा केवल सेक्स को उकसाने का माध्यम नहीं होता है? उसे कौन मां-बाप कला बोध, साहित्य बोध, इतिहास बोध का ज्ञान देता है। वह भी उसी भीड़ में शामिल होगा। फिर कोई महेश भट्ट के बाद अनुराग कश्यप बताएगा कि जो लोग पसंद करते हैं उसे हम दिखाएंगे। वर्तमान समय में पूरी पीढ़ी वैसी तैयार की जा रही है जिसमें विवेक के आधार पर चीजों का खारिज करने का माद्दा नहीं है। इस पीढ़ी को नागरिक नहीं उपभोक्ता बनाया दिया गया है।

बाजार उपभोक्ताओं से चलता है न कि नागरिकों से। इस बाजार में औरतों को हर तरीके से बेचा जा रहा है। अभी 9 जनवरी आने वाला है। इसी दिन 1908 में पेरिस में नारियों को अपने वजूद का अहसास कराने वाली विश्वविख्यात लेखिका सिमोन द बोउवार का जन्म हुआ था।

1949 में जब इनकी किताब ‘द सेकेंड सेक्स’ आई तो पूरी दुनिया में खलबली मच गई थी। आज भी वह किताब उतना ही महत्वपूर्ण है। बीसवीं सदी में सिमोन ने पितृसत्तात्मक समाज को कायदे से नंगा किया था। उन्होंने बतया कि किस तरह मर्दों ने स्त्रियों की पोशाक से लेकर रहन-सहन तक आपने भोगने के हिसाब से निर्धारित किया। सिमोन कहती हैं, ‘स्त्रियों की पोशाक और सज्जा के उपकरण भी इस तरह बनाए जाते हैं, जिससे वे विशेष काम न कर सकें। चीन की स्त्रियों के प्रारंभ से ही पांव बंधे रहते हैं, जिससे उन्हें चलने में कठिनाई होती है। हॉलिवुड की अभिनेत्रियों के नाखूनों पर इतनी गहरी पॉलिश रहती है कि वे हाथ से काम करना पसंद नहीं करतीं। उन्हें ‘भय’ रहता है पॉलिश उतर जाने का। ऊंची एड़ी के जूते पहनने और कमर एवं उसके आस-पास के हिस्से को आवरणों से छिपाए रखने के कारण वे अंग विकसित नहीं हो पाते। उनमें घुमाव और वक्रता नहीं आती। वे निष्क्रिय पड़ जाते हैं। पुरुष उसी स्त्री को अपनी संपत्ति बनाना चाहते हैं।‘

सिमोन के मुताबिक औरत मर्दों के लिए एक खेल है। वह इस तथ्य को नीत्शे के उस कथन से साबित करती हैं। नीत्शे ने कहा है कि योद्धा हमेशा खेल और संकट को पसंद करता है, इसलिए वह नारी को पसंद करता है। नारी सबसे खतरनाक खेल है। जिस पुरुष को खेल और संकट प्रिय है उसे वह स्त्री-योद्धा पसंद आएगी जिसे जीतने की उसे आशा रहती है। वह हृदय से यह चाहता है कि उसका संघर्ष उसके लिए तो खिलवाड़ रहे, पर नारी के लिए भाग्य परीक्षा रहे। पुरुष चाहे उद्धारक के रूप में हो या विजेता के, वह अपनी सच्ची विजय तभी समझता है, जब स्त्री उसे अपना सौभाग्य मानकर स्वीकार करे।

सिमोन की किताब ‘द सेकेंड सेक्स’ उस हर स्त्री को और मर्द को पढ़ने की जरूरत है जो उपभोग को ही आधुनिकता का पर्याय मान बैठे हैं। खास कर उन मर्दों को ज्यादा जरूरी है जो इस किताब की हर लाइन पढ़ते हुए नंगा होता है।

- रजनीश कुमार (Navbharat Times)

Friday, 15 February 2013

नवीन कुकुरमुत्ता कवियों के खिलाफ जिहाद

धीरज, धर्म, मित्र और नारी में सिर्फ धीरज ही बचा था मेरे पास आपत्तिकाल में परखने के लिए, जबकि बाकी तीन तो स्वयं ही आपत्तिकाल हैं... लेकिन फेसबुक पर साहित्यिक भूकंप के साथ कवित्त की सुनामी भी चल रही है... लिहाजा मेरा धीरज भी आखिर जबाब दे ही गया... और मैंने भी कंप्यूटर मानिटर के कटोरे में तमाम शब्दों का कचूमर बना डाला और फेसबुक पर आपके लिए वसंत पंचमी पर पीत-कवित्त परोस रहा हूँ... बूता हो तो झेलिये वरना लाइक करके कोई कायदे की पोस्ट पढ़िए...

अब मैं भी सारे रसों में कवितायें घिसुंगा... श्रंगार रस, वीर रस, रौद्र रस, प्रेम रस, वीभत्स रस, हास्य रस, निंदा रस, गन्ने का रस समेत अनंत रसों की काकटेल कवितायें पेश करूंगा... ज्ञान को पीठ जैसे पुरस्कारों को निगोशिएट करने के लिए छायावादी की बजाय सीधे-सीधे अंधेरवादी कवितायें सकेलुंगा...

मेरा बस चला तो बेडशीट, कुशन कवर, हैंकी आदि के साथ-साथ टायलेट पेपर तक में कवितायें छपवा दूं, ताकि जन-जन हरवक्त कविताओं का भरपूर सेवन करे... पोलियो के टीके की तरह पोएटरी हारमोन के भी टीके बच्चों को लगाने का अभियान चले ताकि भीषण कवियों की पौध तैयार रहे... देश के दुश्मनों और आतंकवादियों से निपटने के लिए सीमा पर एक बटालियन फ़ौज से कहीं ज्यादा एक अदद मौसमी कवि कारगर होगा... फिलहाल ये शब्दों का कचूमर झेलिये... सभी मेरे जैसे घोंघा वसंतों को हैप्पी वसन्ता... ईश्वर आपको शक्ति दे, मेरी हार्दिक शुभकामनाएं आपके साथ हैं...
धीरज, धर्म, मित्र और नारी में सिर्फ धीरज ही बचा था मेरे पास आपत्तिकाल में परखने के लिए, जबकि बाकी तीन तो स्वयं ही आपत्तिकाल हैं... लेकिन फेसबुक पर साहित्यिक भूकंप के साथ कवित्त की सुनामी भी चल रही है... लिहाजा मेरा धीरज भी आखिर जबाब दे ही गया... और मैंने भी कंप्यूटर मानिटर के कटोरे में तमाम शब्दों का कचूमर बना डाला और फेसबुक पर आपके लिए वसंत पंचमी पर पीत-कवित्त परोस रहा हूँ... बूता हो तो झेलिये वरना लाइक करके कोई कायदे की पोस्ट पढ़िए...

अब मैं भी सारे रसों में कवितायें घिसुंगा... श्रंगार रस, वीर रस, रौद्र रस, प्रेम रस, वीभत्स रस, हास्य रस, निंदा रस, गन्ने का रस समेत अनंत रसों की काकटेल कवितायें पेश करूंगा... ज्ञान को पीठ जैसे पुरस्कारों को निगोशिएट करने के लिए छायावादी की बजाय सीधे-सीधे अंधेरवादी कवितायें सकेलुंगा... 

मेरा बस चला तो बेडशीट, कुशन कवर, हैंकी आदि के साथ-साथ टायलेट पेपर तक में कवितायें छपवा दूं, ताकि जन-जन हरवक्त कविताओं का भरपूर सेवन करे... पोलियो के टीके की तरह पोएटरी हारमोन के भी टीके बच्चों को लगाने का अभियान चले ताकि भीषण कवियों की पौध तैयार रहे... देश के दुश्मनों और आतंकवादियों से निपटने के लिए सीमा पर एक बटालियन फ़ौज से कहीं ज्यादा एक अदद मौसमी कवि कारगर होगा... फिलहाल ये शब्दों का कचूमर झेलिये... सभी मेरे जैसे घोंघा वसंतों को हैप्पी वसन्ता... ईश्वर आपको शक्ति दे, मेरी हार्दिक शुभकामनाएं आपके साथ हैं...

Friday, 11 January 2013

.सामाजिक शिक्षक की आधुनिक पौध एक खतरा

समाज के विज्ञान को जानने के लिए आइये सामाजिक विज्ञान का अद्धययन  करते हैं !विज्ञान (वास्तविक रूप में )वाही है जो उत्पादक तथा सकारात्मक हो,विनाश का विज्ञान समाज एवं लोकहित से परे है .परन्तु हाल के दिनों में हमने समाज में घोषित सामाजिक सिक्षा के शिखर संस्थानों का सर्वाधिक विकृत रूप देखा है ,ये संसथान जिन्हें समाज में निहित बुराइयों पर शोध व् उनके समाधान की जिम्मेदारी सौपी गई थी परन्तु इन संस्थानों ने  अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई !बल्कि ये संसथान एक ऐसे संगठन  के रूप में उभरे है जिन्होंनेसंगठित रूप से ऐसे उत्पादों को जन्म दिया जो समाज में अलगाववाद ,बिखराव ,वैमनस्य को बढ़ावा दिया और देते जा रहे हैं !जबकि इनकी जिम्मेदारी अन्ध्विश्वाशों,पर चोट मारना था,पर उलटे ये विश्वाशों पर चोट मरते हुए दिखाई पड़ते हैं मै नहीं जानती हूँ की कौन से चश्मे"से ग्रस्त शिक्षक इन्हें शिक्षा देते हैं और कौन सा चश्मा लगाकर ये समाज में निकलते हैं ,इन्हें पहचानना बहुत ही आसान है क्योंकि क्योंकि ये सभी समाज को तोड़ने की बात करते हैं इनकी हर एक बात सामजिक ढांचे को तोड़ने की ही होती है।,ये शिक्षक और इनके शिष्य कभी किसी ऐसी बात का समर्थन नही कर सकते जो समाज में एकता को बढ़ावा दे !
जब मैं भारत में आधुनिक विचारक राजा  राम मोहन रॉय को याद करती हूँ तो आज के इन उत्पादों और इनके उत्पादनकर्ताओं की विचार क्षमता पर पूर्ण संदेह व्याप्त हो जाता है !मोहन रॉय देश की सबसे बड़ी कुरीति सटी प्रथा का अंत किया पर किसी धर्म को गाली देते नहीं दिखाई दिए
मुझे आश्चर्य होता है की यदि आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तब तो वे सामाजिक विज्ञान के चिन्तक थे ही नहीं ?न इश्वर को गाली ,न अलगाववाद न विखराव न ही राष्ट्र की अवधारणा पर चोट न ही व्यक्तिवाद के लिए राष्ट्रवाद पर चोट और बिना इन सभी पर चोट किये बिना उन्होंने सामाजिक विज्ञान की इंजीनियरिंग कर डाली,,उद्देश्य क्योंकि उनका उद्देश्य अन्ध्विश्वाशों को हटाना थाकिसी को आहात करना नहीं था बल्कि वंचितों की सहायता करनी थी और राष्ट्र में सामाजिक एकता और सौहार्द्र को बनाये रखते हुए ,यही काम अन्य समाज सुधारकों ने भी किया ,दयानंद सरस्वती,स्वामी विवेकानंद,अरविन्द घोष,इत्यादि ने,,
पर आज के सामजिक विज्ञान के शिक्षक और उनके शिष्य ,और उन्हें सर पर चढ़ा देने वाले कुछ पत्रकार समाज सुधार की शुरुवात ही आक्रामकता से करते हैं फिर अतिवाद पर आते हुए गाली गलौच से गुजरते हुए राष्ट्र के अस्तित्व को ही चुनौती देते हैं ..मई सोचती हूँ की क्या यही बौद्धिकता है?
मेरा उत्तर भी मुझे मिलता है की यह सामाजिक व्यभिचार है बौद्धिक दिवालियापन है बस और कुछ नहीं !
परन्तु सच्चाई यह है की ये सामाजिक शिक्षक न तो समाज के जुड़ने से कोई वास्ता रखते हैं न ही समाज के टूटने से कोई वास्ता रखते हैं हाँ ये स्वतंत्रता की भौंडी मानसिकता के प्रचारक अवश्य होते हैं ये निरर्थक और अबूझ कला के प्रेमी होते हैं समाजवाद का जूनून मात्र इसलिए होता है की उभरते नए मीडिया के माध्यम से इतने बड़े देश की इतनी बड़ी जनसँख्या में से कोई भी मूर्ख इने सुनेगा तो इन्हें मानसिक शांति मिलेगी और थोडा मोड़ा प्रचार और नाम ये जिस बौद्धिक मल का स्राव कर रहें हैं निश्चित रूप से इसका सफाया आने वाले समय में मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है क्योंकि ये शिक्षक जैसी महत्वपूर्ण संस्था से सम्बंधित हैं ...हम क्या करेंगे ऐसे शिक्षकों का जो राष्ट्र की सबसे अमूल धरोहर युवाओं को भ्रमित कर रहे हो,हम क्या करेंगे ऐसे शिक्षकों का जो सिर्फ देश में कलह मचाने के लिए पीढियां तैयार कर रहा हो और उसे आधुनिकता की पौध मनाता हो ,हमें नहीं चाहिए ऐसे शिक्षक जो नवाचार के नाम पर व्यभिचार कर रहा हो देश को ऐसी सोच के शिक्षकों को अपदस्थ करना चाहिए ,ऐसे गुरुओं की खेती से कौन सा पौष्टिक आहार देश को प्राप्त होगा इस पर विचार होना ही चाहिए ,ऐसी पौध बड़े वृक्ष के रूप में देश को दुर्दिन ही दिखाएगी जिसके आसार दृष्टिगत होते हैं यदा कद।।।।पर आने वाले समय में ये पौध जंगल का रूप धारण कर चुकी होगी और देश की भूमि को बंजर होने कोई नहीं रोक पायेगा।।।जय हो भारत .