न्यायिक नियुक्तियां और पारदर्शिता
न्यायिक सुधारों को लागू करने के लिए सरकार ने राज्य सभा में 120 वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया, जिस पर चर्चा 5 सितम्बर 2013 को शुरू हुई,यह विधेयक उच्च न्यायलय एवं उच्चतम न्यायलय में न्यायधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में है,नियुक्ति को लेकर कोलेजियम प्रक्रिया पर पारदर्शिता से सम्बंधित समस्याओं को लेकर सरकार ने यह विधेयक पेश किया है.
संविधान में पहले से ही न्यायधीशों की नियुक्ति के लिए अनुच्छेद 124 को बनाया गया है,जिसके तहत उच्चतम न्यायलय के न्यायधीशों की नियुक्ति तो राष्ट्रपति करेंगे परन्तु इस पर उनका कोई विवेकाधिकार नहीं है,अनुच्छेद 124 (2) कहता है कि राष्ट्रपति न्यायधीशों की नियुक्ति उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के ऐसे न्यायधीशों से परामर्श करके करेंगे जिनसे परामर्श लेना वो उचित समझे।संविधान ने कार्यपालिका को इस सम्बन्ध में आत्यांतिक शक्ति नहीं दी है।
यद्यपि 60 के दशक तक परामर्श को मात्र परामर्श ही समझा जाता था, परन्तु बाद के समय में माननीय उच्चतम न्यायलय के विभिन्न निर्णयों ने इसे बाध्यकारी परामर्श का रूप दे दिया अतः राष्ट्रपति के द्वारा परामर्श का माना जाना लगभग बाध्यकारी ही हो गया.
अनुच्छेद 124 में मुख्य न्यायमूर्ति की वरिष्ठता का वैसे तो कोई भी उल्लेख नहीं है बावजूद इसके परम्परा के तहत लगातार 22 वर्षों से मुख्य न्यायमूर्ति की नियुक्ति के समय वरिष्ठता का भी ध्यान रखा जाता था, परन्तु 1956 में विधि आयोग ने अपने एक सुझाव में वरिष्ठता के साथ साथ "गुणों और उपयुक्तता" पर भी जोर दिया था, परन्तु सरकार के द्वारा यह सुझाव माना नहीं गया.लेकिन आने वाला वर्ष 1973 भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए ऐतिहासिक होने वाला था क्योंकि 25 अप्रैल 1973 को जब केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य का मामला प्रकाश में आया तो उसमे कोर्ट ने जो अपना निर्णय सुनाया तो इसके कुछ ही घंटों के अन्दर ही 22 वर्षों से चली आ रही,न्यायधीशों की वरिष्ठता वाली परंपरा पर कुठाराघात करते हुए तत्कालीन इंदिरा सरकार ने तीन वरिष्ठ जजों -न्यायमूर्ति जे.एम् शेलट ,एस के हेगड़े ,और एस एन ग्रोवर की वरिष्ठता क्रम की उपेक्षा ही कर दी और न्यायमूर्ति अजित नाथ राय को मुख्य न्यायमूर्ति की पदवी से नवाज दिया जिससे "कंट्रोलिंग द जुडिसियरी" युग का आरम्भ हुआ ,परन्तु 1977 में जब जनता सरकार आई तो इस युग की प्रथा में सेंध लग गयी,और इस सेंध पर शेष पूरा कार्य 1993 में खुद उच्च न्यायलय ने कर दिया।
इंदिरा सरकार के उपर्युक्त निर्णय की संसद और पूरे देश में बहुत ही तीव्र आलोचना हुयी और बचाव में इंदिरा सरकार के द्वारा बहुत से दलीलें भी दी गयीं,एक नया दर्शन भी संसद में लाया गया जिसे "न्यायधीशों का सामाजिक दर्शन" के नाम से जाना जाता है ,इसमें सरकार ने कहा की उसे न्यायधीशों को नियुक्त करते समय उनके सामाजिक,आर्थिक,राजनैतिक दृष्टिकोण पर भी विचार करने का अधिकार है जो कि एक बेतुकी बात ही प्रतीत हुयी इन सब बातों से यही प्रतीत हो रहा था कि इंदिरा सरकार न्यायपालिका को अपनी पार्टी की विचारधारा का पिछलग्गू बनाना चाहती थी.जो की सर्वथा अनुचित था क्योंकि न्यायधीशों के द्वारा संविधान में विहित "सामाजिक दर्शन" का अनुसरण ही सर्वथा उचित है तभी वे संविधान के माध्यम से समाज को न्यायिक सुरक्षा प्रदान कर सकेंगे।इंदिरा सरकार अपने बचाव में एक ऐसी भी दलील देती नज़र आई जो देश को और संसद को गुमराह करने जैसा था.सरकार के तत्कालीन विधि मंत्री ने अन्य देशों विशेषकर ब्रिटेन से तुलना करते हुए कहा कि वहां वरिष्ठता को आधार नहीं माना जाता परन्तु मंत्री महोदय के द्वारा यह जानकारी छिपा दी गयी कि ब्रिटेन में विधिमंत्री; मुख्य न्यायमूर्ति की नियुक्ति करते समय अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायधीश और वकील संघ की सलाह अवश्य लेता है न कि अपनी पार्टी की विचारधारा से प्रभावित व्यक्ति को मुख्य न्यायधीश नियुक्त करता है.
सरकार के इस दृष्टिकोण पर जिससे संवैधानिक ढांचा चरमरा सकता था ! इस दृष्टिकोण पर 1977 में जनता पार्टी द्वारा ही रोक लगा दिया गया था.और उसी समय पुराना नियम जो की वरिष्ठता का पैमाना था बहाल हो गया था.लगभग इसी समय न्यायमूर्ति पी एन भगवती ने न्यायधीशों के स्थानान्तरण के मामले में चिंता व्यक्त करते हुए आस्ट्रेलिया की भाँति न्यायमूर्तियों की नियुक्ति के लिए एक न्यायिक समिति की नियुक्ति की सलाह दी.
एक बात याद दिलाते चले की 1973 की संवैधानिक चोट जिसपर 1977 में मरहम लगाया गया था को अब एक फाइन टच देना शेष था. जो की सर्वोच्च न्यायलय द्वारा 1993 में "एस सी एडवोकेट ओन रेकोर्ड बनाम भारत संघ" के मामले के माध्यम से दिया गया.इसमें न्यायालय ने "एस पी गुप्ता बनाम भारत संघ" के अपने एक पूर्व निर्णय को पलट दिया जिसमे कहा गया था कि न्यायधीशों की नियुक्ति और स्थानान्तरण के विषय में सरकार को पूर्ण शक्ति प्राप्त है और पलटते हुए यह स्थापित किया गया की इस मामले में उच्चतम न्यायलय के मुख्य न्यायमूर्ति का निर्णय ही अंतिम निर्णय होगा और भारत के मुख्य न्यायधीश के पद पर उच्चतम न्यायलय के वरिष्ठतम न्यायधीश की ही नियुक्ति की जायेगी।1993 के निर्णय को मजबूती देने का कार्य किया 1999 के "री प्रेसिडेंशियल रिफरेन्स" मामले ने, जो की एक प्रसिद्द मामला था और उच्चतर न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति से सम्बंधित था.इस मामले में न्यायालय ने स्थापित किया कि नियुक्ति और स्थानांतरण के मामले में 1993 के निर्णय में स्थापित परामर्श प्रक्रिया का पालन किये बिना मुख्य न्यायाधीश द्वारा की गयी सिफारिशों को मानने को कार्यपालिका बाध्य नहीं है वास्तव में यह मामला प्रकाश में तब आया जब भारत के राष्ट्रपति के आर नारायणन ने अनुच्छेद 143 के अधीन उच्चतम न्यायलय से 9 प्रश्नों पर सलाह मांगी,राष्ट्रपति के द्वारा पूछा गया कि; क्या वे न्यायधीशों की नियुक्ति के मामले में मुख्य न्यायधीश द्वारा भेजी गयी सिफारिशों को जो अन्य न्यायधीशों से परामर्श किये बिना भेजी गयी है मानने के लिए बाध्य है ? तो उसके उत्तर में न्यायलय ने उपर्युक्त निर्णय से स्थापित निर्वचन को ही उपयुक्त माना।
इस समस्या के बीज छिपे थे पूर्व मुख्य न्यायमूर्ति एम् एम् पुंछी की मनमानी सिफारिशों पर जो उन्होंने सरकार को बिना अन्य न्यायधीशों के परामर्श के ही भेज दिया था, जिसे सरकार ने रोक कर उच्चतम न्यायलय से उपर्युक्त सम्बन्ध में सलाह मांगी थी।
उपर्युक्त न्यायिक नियुक्ति से सम्बंधित अनियमितताओं के कारण जो कि संविधान के प्रभावी होने के बाद मानवीय भूलों के कारण आरम्भ हो गयी थी, की वजह से ही जन्म हुआ एक राष्ट्रीय न्यायिक समिति की आवश्यकता का। सर्वप्रथम यह मांग 1980 में पी एन भगवती के द्वारा सुझाव के रूप में की गयी,और बाद में इसी मांग को 1990 में नेशनल फ्रंट सरकार के विधि मंत्री श्री दिनेश गोस्वामी ने आगे बढ़ाते हुए एक विधेयक प्रस्तुत किया ,जो कि लोक सभा भंग होने के कारण स्वतः समाप्त हो गया था.इसके पहले 1987 में विधि आयोग भी सुझाव दे चुका था परन्तु वह स्वीकार नहीं किया गया (इस सुझाव में समिति के लिए 9 सदस्यों को सम्मिलित करने की सिफारिश की गयी थी जिसकी अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायमूर्ति करते ,3 उच्चतम न्यायलय के न्यायधीश ,3 उच्च न्यायलय के न्यायमूर्ति ,भारत के महाधिवक्ता ,एक प्रतिष्ठित विधिवेत्ता सहित क़ानून मंत्री शामिल थे )
नब्बे के दशक के मध्य में आई राजनैतिक आस्थिरता ने इसमें जो विराम लगाया था उसे तोड़ने का काम किया बेंकेटचलैय्या कमीशन ने, जिसे भारतीय संविधान के पुनर्विलोकन के लिए नियुक्त किया गया था.वेंकटचेलैय्या कमीशन ने राष्ट्रीय न्यायिक समिति का सुझाव दिया था जिसे सरकार ने कभी लागू नहीं किया।2003 में तत्कालीन विधि मंत्री अरुण जेटली ने इस विधेयक को पेश किया किन्तु लोकसभा भंग होने के कारण इस बात पर नहीं बढ़ा जा सका.अब जबकि इसे 120 वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में राज्यसभा में लाया गया है तो कुछ आशा है कि न्यायिक पारदर्शिता में इस कमीशन के बन जाने से और अधिक सुधार आएगा ,परन्तु सभी को इस न्यायिक समिति की व्यवस्था पर पूरा भरोसा नहीं है, भारत के पूर्व मुख्य न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर ने न्यायिक समिति का पुरजोर विरोध करते हुए कहा है कि उच्चतर स्तर पर न्यायधीशों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम (उच्चतम न्यायलय के लिए भारत के मुख्य न्यायमूर्ति की अध्यक्षता में 5 और उच्च न्यायलय के लिए वहां के मुख्य न्यायधीश सहित 3 सदस्यीय वरिष्ठतम न्यायधीशों का समूह ) प्रक्रिया ही सबसे उपयुक्त है क्योंकि इसमें नियुक्ति करते समय बहुत गहन विचार विमर्श किया जता है और यह अपने आप में पूर्णतया पारदर्शी प्रक्रिया है.यद्यपि न्यायमूर्ति कबीर पर भी गुजरात उच्च न्यायलय के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति भट्टाचार्य ने सर्वोच्च न्यायलय में उनकी नियुक्ति न किये जाने पर पक्षपात का आरोप लगाया था.
यह सच है कि न्यायिक समिति आज के दौर की आवश्यकता है, और यह भी सच है कि न्यायपालिका में प्रत्येक स्तर पर पारदर्शिता के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता है ,किन्तु हमें यह याद रखना होगा कि कहीं जल्दबाजी में लिए गए विधायिका के किसी निर्णय की वजह से पूरी दुनिया में अपनी स्वायत्तता के लिए प्रसिद्द हमारी न्यायपालिका को स्वतंत्रता के संकट से न जूझना पड़े.यह भी ध्यान रखना होगा कि कार्यपालिका के हस्तक्षेप से न्याय व्यवस्था बाधित ना हो,इस समस्या को ध्यान में रखते हुए हाल में सुप्रीम कोर्ट बार एसोसियेशन के अध्यक्ष एम् एन कृष्णामणि ने कहा कि बार एसोसियेशन ऐसी न्यायिक समिति का विरोध करती है जिससे कार्यपालिका के सदस्यों की उपस्थिति से न्यायपालिका की स्वतंत्रता बाधित हो.भारत के मुख्य न्यायमूर्ति पी सतशिवम ने भी आश्वासन दिया है कि सरकार की न्यायिक समिति बनाने की योजना पर विस्तृत चर्चा और विचार के बाद ही कोई निर्णय लिया जाएगा ,और किसी भी रूप में न्यायपालिका की स्वायत्तता को बाधित नहीं होने दिया जायेगा।
बार एसोसियेशन और मुख्य न्यायमूर्ति की चिंताओं और आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए इतने महत्वपूर्ण विधेयक को निश्चित ही स्थाई समिति में भेजकर महत्वपूर्ण कार्य पूरा किया जा चुका है इससे इस विधेयक में और महत्वपूर्ण विन्दुओं को सम्मिलित किये जाने की आशा है और यह विधेयक मील का पत्थर सिद्ध हो सकता है यदि इसके सभी स्टेक होल्डर्स की सलाह एवं उनके पक्षों के साथ आगे कदम बढ़ाया जाये।न्यायिक उत्तरदायित्व व पारदर्शिता पर आधारित विधेयक पर राष्ट्र के सभी बुद्धिजीवियों ,विद्यार्थियों ,विद्वानों ,कानून विशेषज्ञों एवं पूर्व न्यायधीशों और साथ में विधायिका की सलाह के पक्षों के साथ चलने से ही न्यायिक व्यवस्था में बड़े सुधार संभव हो सकेंगे,अन्यथा यह विधेयक भी बस एक और विधेयक बन कर रह जायेगा।
संविधान में पहले से ही न्यायधीशों की नियुक्ति के लिए अनुच्छेद 124 को बनाया गया है,जिसके तहत उच्चतम न्यायलय के न्यायधीशों की नियुक्ति तो राष्ट्रपति करेंगे परन्तु इस पर उनका कोई विवेकाधिकार नहीं है,अनुच्छेद 124 (2) कहता है कि राष्ट्रपति न्यायधीशों की नियुक्ति उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के ऐसे न्यायधीशों से परामर्श करके करेंगे जिनसे परामर्श लेना वो उचित समझे।संविधान ने कार्यपालिका को इस सम्बन्ध में आत्यांतिक शक्ति नहीं दी है।
यद्यपि 60 के दशक तक परामर्श को मात्र परामर्श ही समझा जाता था, परन्तु बाद के समय में माननीय उच्चतम न्यायलय के विभिन्न निर्णयों ने इसे बाध्यकारी परामर्श का रूप दे दिया अतः राष्ट्रपति के द्वारा परामर्श का माना जाना लगभग बाध्यकारी ही हो गया.
अनुच्छेद 124 में मुख्य न्यायमूर्ति की वरिष्ठता का वैसे तो कोई भी उल्लेख नहीं है बावजूद इसके परम्परा के तहत लगातार 22 वर्षों से मुख्य न्यायमूर्ति की नियुक्ति के समय वरिष्ठता का भी ध्यान रखा जाता था, परन्तु 1956 में विधि आयोग ने अपने एक सुझाव में वरिष्ठता के साथ साथ "गुणों और उपयुक्तता" पर भी जोर दिया था, परन्तु सरकार के द्वारा यह सुझाव माना नहीं गया.लेकिन आने वाला वर्ष 1973 भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए ऐतिहासिक होने वाला था क्योंकि 25 अप्रैल 1973 को जब केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य का मामला प्रकाश में आया तो उसमे कोर्ट ने जो अपना निर्णय सुनाया तो इसके कुछ ही घंटों के अन्दर ही 22 वर्षों से चली आ रही,न्यायधीशों की वरिष्ठता वाली परंपरा पर कुठाराघात करते हुए तत्कालीन इंदिरा सरकार ने तीन वरिष्ठ जजों -न्यायमूर्ति जे.एम् शेलट ,एस के हेगड़े ,और एस एन ग्रोवर की वरिष्ठता क्रम की उपेक्षा ही कर दी और न्यायमूर्ति अजित नाथ राय को मुख्य न्यायमूर्ति की पदवी से नवाज दिया जिससे "कंट्रोलिंग द जुडिसियरी" युग का आरम्भ हुआ ,परन्तु 1977 में जब जनता सरकार आई तो इस युग की प्रथा में सेंध लग गयी,और इस सेंध पर शेष पूरा कार्य 1993 में खुद उच्च न्यायलय ने कर दिया।
इंदिरा सरकार के उपर्युक्त निर्णय की संसद और पूरे देश में बहुत ही तीव्र आलोचना हुयी और बचाव में इंदिरा सरकार के द्वारा बहुत से दलीलें भी दी गयीं,एक नया दर्शन भी संसद में लाया गया जिसे "न्यायधीशों का सामाजिक दर्शन" के नाम से जाना जाता है ,इसमें सरकार ने कहा की उसे न्यायधीशों को नियुक्त करते समय उनके सामाजिक,आर्थिक,राजनैतिक दृष्टिकोण पर भी विचार करने का अधिकार है जो कि एक बेतुकी बात ही प्रतीत हुयी इन सब बातों से यही प्रतीत हो रहा था कि इंदिरा सरकार न्यायपालिका को अपनी पार्टी की विचारधारा का पिछलग्गू बनाना चाहती थी.जो की सर्वथा अनुचित था क्योंकि न्यायधीशों के द्वारा संविधान में विहित "सामाजिक दर्शन" का अनुसरण ही सर्वथा उचित है तभी वे संविधान के माध्यम से समाज को न्यायिक सुरक्षा प्रदान कर सकेंगे।इंदिरा सरकार अपने बचाव में एक ऐसी भी दलील देती नज़र आई जो देश को और संसद को गुमराह करने जैसा था.सरकार के तत्कालीन विधि मंत्री ने अन्य देशों विशेषकर ब्रिटेन से तुलना करते हुए कहा कि वहां वरिष्ठता को आधार नहीं माना जाता परन्तु मंत्री महोदय के द्वारा यह जानकारी छिपा दी गयी कि ब्रिटेन में विधिमंत्री; मुख्य न्यायमूर्ति की नियुक्ति करते समय अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायधीश और वकील संघ की सलाह अवश्य लेता है न कि अपनी पार्टी की विचारधारा से प्रभावित व्यक्ति को मुख्य न्यायधीश नियुक्त करता है.
सरकार के इस दृष्टिकोण पर जिससे संवैधानिक ढांचा चरमरा सकता था ! इस दृष्टिकोण पर 1977 में जनता पार्टी द्वारा ही रोक लगा दिया गया था.और उसी समय पुराना नियम जो की वरिष्ठता का पैमाना था बहाल हो गया था.लगभग इसी समय न्यायमूर्ति पी एन भगवती ने न्यायधीशों के स्थानान्तरण के मामले में चिंता व्यक्त करते हुए आस्ट्रेलिया की भाँति न्यायमूर्तियों की नियुक्ति के लिए एक न्यायिक समिति की नियुक्ति की सलाह दी.
एक बात याद दिलाते चले की 1973 की संवैधानिक चोट जिसपर 1977 में मरहम लगाया गया था को अब एक फाइन टच देना शेष था. जो की सर्वोच्च न्यायलय द्वारा 1993 में "एस सी एडवोकेट ओन रेकोर्ड बनाम भारत संघ" के मामले के माध्यम से दिया गया.इसमें न्यायालय ने "एस पी गुप्ता बनाम भारत संघ" के अपने एक पूर्व निर्णय को पलट दिया जिसमे कहा गया था कि न्यायधीशों की नियुक्ति और स्थानान्तरण के विषय में सरकार को पूर्ण शक्ति प्राप्त है और पलटते हुए यह स्थापित किया गया की इस मामले में उच्चतम न्यायलय के मुख्य न्यायमूर्ति का निर्णय ही अंतिम निर्णय होगा और भारत के मुख्य न्यायधीश के पद पर उच्चतम न्यायलय के वरिष्ठतम न्यायधीश की ही नियुक्ति की जायेगी।1993 के निर्णय को मजबूती देने का कार्य किया 1999 के "री प्रेसिडेंशियल रिफरेन्स" मामले ने, जो की एक प्रसिद्द मामला था और उच्चतर न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति से सम्बंधित था.इस मामले में न्यायालय ने स्थापित किया कि नियुक्ति और स्थानांतरण के मामले में 1993 के निर्णय में स्थापित परामर्श प्रक्रिया का पालन किये बिना मुख्य न्यायाधीश द्वारा की गयी सिफारिशों को मानने को कार्यपालिका बाध्य नहीं है वास्तव में यह मामला प्रकाश में तब आया जब भारत के राष्ट्रपति के आर नारायणन ने अनुच्छेद 143 के अधीन उच्चतम न्यायलय से 9 प्रश्नों पर सलाह मांगी,राष्ट्रपति के द्वारा पूछा गया कि; क्या वे न्यायधीशों की नियुक्ति के मामले में मुख्य न्यायधीश द्वारा भेजी गयी सिफारिशों को जो अन्य न्यायधीशों से परामर्श किये बिना भेजी गयी है मानने के लिए बाध्य है ? तो उसके उत्तर में न्यायलय ने उपर्युक्त निर्णय से स्थापित निर्वचन को ही उपयुक्त माना।
इस समस्या के बीज छिपे थे पूर्व मुख्य न्यायमूर्ति एम् एम् पुंछी की मनमानी सिफारिशों पर जो उन्होंने सरकार को बिना अन्य न्यायधीशों के परामर्श के ही भेज दिया था, जिसे सरकार ने रोक कर उच्चतम न्यायलय से उपर्युक्त सम्बन्ध में सलाह मांगी थी।
उपर्युक्त न्यायिक नियुक्ति से सम्बंधित अनियमितताओं के कारण जो कि संविधान के प्रभावी होने के बाद मानवीय भूलों के कारण आरम्भ हो गयी थी, की वजह से ही जन्म हुआ एक राष्ट्रीय न्यायिक समिति की आवश्यकता का। सर्वप्रथम यह मांग 1980 में पी एन भगवती के द्वारा सुझाव के रूप में की गयी,और बाद में इसी मांग को 1990 में नेशनल फ्रंट सरकार के विधि मंत्री श्री दिनेश गोस्वामी ने आगे बढ़ाते हुए एक विधेयक प्रस्तुत किया ,जो कि लोक सभा भंग होने के कारण स्वतः समाप्त हो गया था.इसके पहले 1987 में विधि आयोग भी सुझाव दे चुका था परन्तु वह स्वीकार नहीं किया गया (इस सुझाव में समिति के लिए 9 सदस्यों को सम्मिलित करने की सिफारिश की गयी थी जिसकी अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायमूर्ति करते ,3 उच्चतम न्यायलय के न्यायधीश ,3 उच्च न्यायलय के न्यायमूर्ति ,भारत के महाधिवक्ता ,एक प्रतिष्ठित विधिवेत्ता सहित क़ानून मंत्री शामिल थे )
यह सच है कि न्यायिक समिति आज के दौर की आवश्यकता है, और यह भी सच है कि न्यायपालिका में प्रत्येक स्तर पर पारदर्शिता के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता है ,किन्तु हमें यह याद रखना होगा कि कहीं जल्दबाजी में लिए गए विधायिका के किसी निर्णय की वजह से पूरी दुनिया में अपनी स्वायत्तता के लिए प्रसिद्द हमारी न्यायपालिका को स्वतंत्रता के संकट से न जूझना पड़े.यह भी ध्यान रखना होगा कि कार्यपालिका के हस्तक्षेप से न्याय व्यवस्था बाधित ना हो,इस समस्या को ध्यान में रखते हुए हाल में सुप्रीम कोर्ट बार एसोसियेशन के अध्यक्ष एम् एन कृष्णामणि ने कहा कि बार एसोसियेशन ऐसी न्यायिक समिति का विरोध करती है जिससे कार्यपालिका के सदस्यों की उपस्थिति से न्यायपालिका की स्वतंत्रता बाधित हो.भारत के मुख्य न्यायमूर्ति पी सतशिवम ने भी आश्वासन दिया है कि सरकार की न्यायिक समिति बनाने की योजना पर विस्तृत चर्चा और विचार के बाद ही कोई निर्णय लिया जाएगा ,और किसी भी रूप में न्यायपालिका की स्वायत्तता को बाधित नहीं होने दिया जायेगा।
बार एसोसियेशन और मुख्य न्यायमूर्ति की चिंताओं और आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए इतने महत्वपूर्ण विधेयक को निश्चित ही स्थाई समिति में भेजकर महत्वपूर्ण कार्य पूरा किया जा चुका है इससे इस विधेयक में और महत्वपूर्ण विन्दुओं को सम्मिलित किये जाने की आशा है और यह विधेयक मील का पत्थर सिद्ध हो सकता है यदि इसके सभी स्टेक होल्डर्स की सलाह एवं उनके पक्षों के साथ आगे कदम बढ़ाया जाये।न्यायिक उत्तरदायित्व व पारदर्शिता पर आधारित विधेयक पर राष्ट्र के सभी बुद्धिजीवियों ,विद्यार्थियों ,विद्वानों ,कानून विशेषज्ञों एवं पूर्व न्यायधीशों और साथ में विधायिका की सलाह के पक्षों के साथ चलने से ही न्यायिक व्यवस्था में बड़े सुधार संभव हो सकेंगे,अन्यथा यह विधेयक भी बस एक और विधेयक बन कर रह जायेगा।
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