Tuesday, 15 March 2016

न्यायिक नियुक्तियां और पारदर्शिता

                                              न्यायिक नियुक्तियां और पारदर्शिता 


न्यायिक सुधारों को लागू करने के लिए सरकार ने राज्य सभा में 120 वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया, जिस पर चर्चा 5 सितम्बर 2013 को शुरू हुई,यह विधेयक उच्च न्यायलय एवं उच्चतम न्यायलय में न्यायधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में है,नियुक्ति को लेकर कोलेजियम प्रक्रिया पर पारदर्शिता से सम्बंधित समस्याओं को लेकर सरकार ने यह विधेयक पेश किया है.
संविधान में पहले से ही न्यायधीशों की नियुक्ति के लिए अनुच्छेद 124 को बनाया गया है,जिसके तहत उच्चतम न्यायलय के न्यायधीशों की नियुक्ति तो राष्ट्रपति करेंगे  परन्तु इस पर उनका  कोई विवेकाधिकार नहीं है,अनुच्छेद 124 (2) कहता है कि राष्ट्रपति न्यायधीशों की नियुक्ति उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के ऐसे न्यायधीशों से परामर्श करके करेंगे जिनसे परामर्श लेना वो उचित समझे।संविधान ने कार्यपालिका को इस सम्बन्ध में आत्यांतिक शक्ति नहीं दी है।
यद्यपि 60 के दशक तक परामर्श को मात्र परामर्श ही समझा जाता था, परन्तु बाद के समय में माननीय उच्चतम न्यायलय के विभिन्न निर्णयों ने इसे बाध्यकारी परामर्श का रूप दे दिया अतः राष्ट्रपति के द्वारा परामर्श का माना जाना लगभग बाध्यकारी ही हो गया.
अनुच्छेद 124 में मुख्य न्यायमूर्ति की वरिष्ठता का वैसे तो कोई भी उल्लेख नहीं है बावजूद इसके परम्परा के तहत लगातार 22 वर्षों से मुख्य न्यायमूर्ति की नियुक्ति के समय वरिष्ठता का भी ध्यान रखा जाता था, परन्तु 1956 में विधि आयोग ने अपने एक सुझाव में वरिष्ठता के साथ साथ "गुणों और उपयुक्तता" पर भी जोर दिया था, परन्तु सरकार के द्वारा यह सुझाव माना नहीं गया.लेकिन आने वाला वर्ष 1973 भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए ऐतिहासिक होने वाला था क्योंकि 25 अप्रैल 1973 को जब केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य का मामला प्रकाश में आया तो उसमे कोर्ट ने जो अपना निर्णय सुनाया तो इसके कुछ ही घंटों के अन्दर ही 22 वर्षों से चली आ रही,न्यायधीशों की वरिष्ठता वाली परंपरा पर कुठाराघात करते हुए तत्कालीन इंदिरा सरकार ने तीन वरिष्ठ जजों -न्यायमूर्ति जे.एम् शेलट ,एस के हेगड़े ,और  एस एन ग्रोवर की वरिष्ठता क्रम की उपेक्षा ही कर दी और न्यायमूर्ति अजित नाथ राय को मुख्य न्यायमूर्ति की पदवी से नवाज दिया जिससे "कंट्रोलिंग द जुडिसियरी" युग का आरम्भ हुआ ,परन्तु 1977 में जब जनता सरकार आई तो इस युग की प्रथा में सेंध लग गयी,और इस सेंध पर शेष पूरा कार्य 1993 में खुद उच्च न्यायलय ने कर दिया।
इंदिरा सरकार के उपर्युक्त निर्णय की संसद और पूरे देश में बहुत ही तीव्र आलोचना हुयी और बचाव में इंदिरा सरकार के द्वारा बहुत से दलीलें भी दी गयीं,एक नया दर्शन भी संसद में लाया गया जिसे "न्यायधीशों का सामाजिक दर्शन" के नाम से जाना जाता है ,इसमें सरकार ने कहा की उसे न्यायधीशों को नियुक्त करते समय उनके सामाजिक,आर्थिक,राजनैतिक दृष्टिकोण पर भी विचार करने का अधिकार है जो कि एक बेतुकी बात ही प्रतीत हुयी इन सब बातों से यही प्रतीत हो रहा था कि इंदिरा सरकार न्यायपालिका को अपनी पार्टी की विचारधारा का पिछलग्गू बनाना चाहती थी.जो की सर्वथा  अनुचित था क्योंकि न्यायधीशों के द्वारा संविधान में विहित "सामाजिक दर्शन" का अनुसरण ही सर्वथा उचित है तभी वे संविधान के माध्यम से समाज को न्यायिक सुरक्षा प्रदान कर सकेंगे।इंदिरा सरकार अपने बचाव में एक ऐसी भी दलील देती नज़र आई जो देश को और संसद को गुमराह करने जैसा था.सरकार के तत्कालीन विधि मंत्री ने अन्य देशों विशेषकर ब्रिटेन से तुलना करते हुए कहा कि वहां वरिष्ठता को आधार नहीं माना जाता परन्तु मंत्री महोदय के द्वारा यह जानकारी छिपा दी गयी कि ब्रिटेन में विधिमंत्री; मुख्य न्यायमूर्ति की नियुक्ति करते समय अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायधीश और वकील संघ की सलाह अवश्य लेता है न कि अपनी पार्टी की विचारधारा से प्रभावित व्यक्ति को मुख्य न्यायधीश नियुक्त करता है.
सरकार के इस दृष्टिकोण पर जिससे संवैधानिक ढांचा चरमरा सकता था ! इस दृष्टिकोण पर 1977 में जनता पार्टी द्वारा ही रोक लगा दिया गया था.और उसी समय पुराना नियम जो की वरिष्ठता का पैमाना था बहाल हो गया था.लगभग इसी समय न्यायमूर्ति पी एन भगवती ने न्यायधीशों के स्थानान्तरण के मामले में चिंता व्यक्त करते हुए आस्ट्रेलिया की भाँति  न्यायमूर्तियों की नियुक्ति के लिए एक न्यायिक समिति की नियुक्ति की सलाह दी.
एक बात याद दिलाते चले की 1973 की संवैधानिक चोट जिसपर 1977 में मरहम लगाया गया था को अब एक फाइन टच देना शेष था. जो की सर्वोच्च न्यायलय द्वारा 1993 में "एस सी एडवोकेट ओन रेकोर्ड बनाम भारत संघ" के मामले के माध्यम से दिया गया.इसमें न्यायालय ने "एस पी गुप्ता बनाम भारत संघ" के अपने एक पूर्व निर्णय को पलट दिया जिसमे कहा गया था कि न्यायधीशों की नियुक्ति और स्थानान्तरण के विषय में सरकार को पूर्ण शक्ति प्राप्त है और पलटते हुए यह स्थापित किया गया की इस मामले में उच्चतम न्यायलय के मुख्य न्यायमूर्ति का निर्णय ही अंतिम निर्णय होगा और भारत के मुख्य न्यायधीश के पद पर उच्चतम न्यायलय के वरिष्ठतम न्यायधीश की ही नियुक्ति की जायेगी।1993 के निर्णय को मजबूती देने का कार्य किया 1999 के "री प्रेसिडेंशियल रिफरेन्स" मामले ने, जो की एक प्रसिद्द मामला था और उच्चतर  न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति से सम्बंधित था.इस मामले में न्यायालय ने स्थापित किया कि नियुक्ति और स्थानांतरण के मामले में 1993 के निर्णय में स्थापित परामर्श प्रक्रिया का पालन किये बिना मुख्य न्यायाधीश द्वारा की गयी सिफारिशों को मानने को कार्यपालिका बाध्य नहीं है वास्तव में यह मामला प्रकाश में तब आया जब भारत के राष्ट्रपति के आर नारायणन ने अनुच्छेद 143 के अधीन उच्चतम न्यायलय से 9 प्रश्नों पर सलाह मांगी,राष्ट्रपति के द्वारा पूछा गया कि; क्या वे न्यायधीशों की नियुक्ति के मामले में मुख्य न्यायधीश द्वारा भेजी गयी सिफारिशों को जो अन्य न्यायधीशों से परामर्श किये बिना भेजी  गयी है मानने के लिए बाध्य है ? तो उसके उत्तर में न्यायलय ने  उपर्युक्त निर्णय से स्थापित निर्वचन को ही उपयुक्त माना।
इस समस्या के बीज छिपे थे पूर्व मुख्य न्यायमूर्ति एम् एम् पुंछी  की मनमानी सिफारिशों पर जो उन्होंने सरकार को बिना अन्य न्यायधीशों के परामर्श के ही भेज दिया था, जिसे सरकार ने रोक कर उच्चतम न्यायलय से उपर्युक्त सम्बन्ध में सलाह मांगी थी।
उपर्युक्त न्यायिक नियुक्ति से सम्बंधित अनियमितताओं के कारण जो कि संविधान के प्रभावी होने के बाद मानवीय भूलों के कारण आरम्भ हो गयी थी, की वजह से ही जन्म हुआ एक राष्ट्रीय न्यायिक समिति की आवश्यकता का। सर्वप्रथम यह मांग 1980 में पी एन भगवती के द्वारा सुझाव के रूप में की गयी,और बाद में इसी मांग को 1990 में नेशनल फ्रंट सरकार के विधि मंत्री श्री दिनेश गोस्वामी ने आगे बढ़ाते हुए एक विधेयक प्रस्तुत किया ,जो कि  लोक सभा भंग होने के कारण स्वतः समाप्त हो गया था.इसके पहले 1987 में विधि आयोग भी सुझाव दे चुका था परन्तु वह स्वीकार नहीं किया गया (इस सुझाव में समिति के लिए 9 सदस्यों को सम्मिलित करने की सिफारिश की गयी थी जिसकी अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायमूर्ति करते ,3 उच्चतम न्यायलय के न्यायधीश  ,3  उच्च न्यायलय के न्यायमूर्ति ,भारत के महाधिवक्ता ,एक प्रतिष्ठित विधिवेत्ता सहित क़ानून मंत्री शामिल थे )
नब्बे के दशक के मध्य में आई राजनैतिक आस्थिरता ने इसमें जो विराम लगाया था उसे तोड़ने का काम किया बेंकेटचलैय्या कमीशन ने, जिसे भारतीय संविधान के पुनर्विलोकन के लिए नियुक्त किया गया था.वेंकटचेलैय्या कमीशन ने राष्ट्रीय न्यायिक समिति का सुझाव दिया था जिसे सरकार ने कभी लागू नहीं किया।2003 में तत्कालीन विधि मंत्री अरुण जेटली ने इस विधेयक को पेश किया किन्तु लोकसभा भंग होने के कारण इस बात पर नहीं बढ़ा जा सका.अब जबकि इसे 120 वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में राज्यसभा में लाया गया है तो कुछ आशा है कि न्यायिक पारदर्शिता में इस कमीशन के बन जाने से और अधिक सुधार आएगा ,परन्तु सभी को इस न्यायिक समिति की व्यवस्था पर पूरा भरोसा नहीं है, भारत के पूर्व मुख्य न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर ने न्यायिक समिति का पुरजोर विरोध करते हुए कहा है कि उच्चतर स्तर पर न्यायधीशों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम (उच्चतम न्यायलय के लिए भारत के मुख्य न्यायमूर्ति की अध्यक्षता में 5 और उच्च न्यायलय के लिए वहां के मुख्य न्यायधीश सहित 3 सदस्यीय वरिष्ठतम न्यायधीशों का समूह ) प्रक्रिया ही सबसे उपयुक्त है क्योंकि इसमें नियुक्ति करते समय बहुत गहन विचार विमर्श किया जता है और यह अपने आप में पूर्णतया पारदर्शी प्रक्रिया है.यद्यपि न्यायमूर्ति कबीर पर भी गुजरात उच्च न्यायलय के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति भट्टाचार्य ने सर्वोच्च न्यायलय में उनकी नियुक्ति न किये जाने पर पक्षपात का आरोप लगाया था.
यह सच है कि न्यायिक समिति आज के दौर की आवश्यकता है, और यह भी सच है कि न्यायपालिका में प्रत्येक स्तर पर पारदर्शिता के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता है ,किन्तु हमें यह याद रखना होगा कि कहीं जल्दबाजी में लिए गए विधायिका के किसी निर्णय की वजह से पूरी दुनिया में अपनी स्वायत्तता के लिए प्रसिद्द हमारी न्यायपालिका को स्वतंत्रता के संकट से न जूझना पड़े.यह भी ध्यान रखना होगा कि कार्यपालिका के हस्तक्षेप से न्याय व्यवस्था बाधित ना हो,इस समस्या को ध्यान में रखते हुए हाल में सुप्रीम कोर्ट बार एसोसियेशन के अध्यक्ष  एम् एन कृष्णामणि ने कहा कि बार एसोसियेशन ऐसी न्यायिक समिति का विरोध करती है जिससे  कार्यपालिका के सदस्यों की उपस्थिति से न्यायपालिका की स्वतंत्रता बाधित हो.भारत के मुख्य न्यायमूर्ति पी सतशिवम ने भी आश्वासन दिया है कि सरकार की न्यायिक समिति बनाने की योजना पर विस्तृत चर्चा और विचार के बाद ही कोई निर्णय लिया जाएगा ,और किसी भी रूप में न्यायपालिका की स्वायत्तता को बाधित नहीं होने दिया जायेगा।
बार एसोसियेशन और मुख्य न्यायमूर्ति की चिंताओं और आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए इतने महत्वपूर्ण विधेयक को निश्चित ही स्थाई समिति में भेजकर महत्वपूर्ण कार्य पूरा किया जा चुका है इससे इस विधेयक में और महत्वपूर्ण विन्दुओं को सम्मिलित किये जाने की आशा है और यह विधेयक मील का पत्थर सिद्ध हो सकता है यदि इसके सभी स्टेक होल्डर्स की सलाह एवं  उनके पक्षों के साथ आगे कदम बढ़ाया जाये।न्यायिक उत्तरदायित्व व पारदर्शिता पर आधारित विधेयक पर राष्ट्र के सभी बुद्धिजीवियों ,विद्यार्थियों ,विद्वानों ,कानून विशेषज्ञों एवं पूर्व न्यायधीशों और साथ में विधायिका की सलाह के पक्षों के साथ चलने से ही न्यायिक व्यवस्था में बड़े सुधार संभव हो सकेंगे,अन्यथा यह विधेयक भी बस एक और विधेयक बन कर रह जायेगा।

धनलोलुप कोचिंग सस्थान : भावी लोक सेवक

                                                       


हमारे देश में गुरु की बहुत बड़ी महिमा है और गुरु या शिक्षक को बहुत सम्मान प्राप्त है ,क्योंकि शिक्षक छात्रों का अंशकालिक अभिभावक होता है अतः छात्रों की शिक्षा पर अध्ययन प्रक्रिया के अतिरिक्त शिक्षकों को प्रेरणा युक्त व्यवहार ,नियंत्रण,निश्चयात्मकता ,सुविधाओं को मुहैया कराना  आदि घटक भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं ,जो निश्चित ही छात्रों की शैक्षिक उपलब्धियों से सम्बंधित होते हैं !
इन्डियन असोसिएशन ऑफ़ टीचर्स एजुकेटर्स के नॅशनल सेक्रेटरी प्रोफ़ेसर एन,एन,पाण्डेय का कहना है की "उस दौर के शिक्षकों में जानने की ललक थी परन्तु अब के शिक्षक सब कुछ पा लेना चाहते हैं ",इसका अर्थ यह है की आज के शिक्षकों में प्रतिबद्धता नहीं है ,आज के शिक्षक डायनामिक है और शिक्षण व्यवसाय में संलग्न शिक्षक समुदाय के अन्दर निम्न नैतिकता एवं व्यावसायिक संतुष्टि एक चुनौती के रूप में दृष्टिगोचर हो रही है .यदि हम यहाँ अनुदानित विद्यालयों ,उच्च शिक्षण संस्थानों ,सरकारी विद्यालयों की बात छोड़ दें और उन निजी संस्थानों के रूप में कार्य कर रहे कोचिंग संस्थानों की बात करें तो एक बहुत ही चौंकाने वाली बात सामने आएगी जिन्हें हम सभी लोगों ने हमेशा नजरअंदाज किया है ,यहाँ हम उन कोचिंग संस्थानों की भी बात नहीं करेंगे जो माध्यमिक शिक्षा ,दसवीं ,ग्यारहवीं  और मेडिकल,इंजीनियर बनाने के लिए शिक्षा दे रहें हैं ,बल्कि हमें उन कोचिंग संस्थानों पर ध्यान देना है जो देश की सबसे प्रतिष्ठित परीक्षा में बैठने वाले छात्रों को कोचिंग देते हैं ,इलाहबाद में इन कोचिंग संस्थानों की स्थिति पहले से ही भयावह थी,परन्तु दिल्ली की स्थिति पर अब गौर करना आवश्यक हो गया है .कोचिंग संस्थानों की मनमानी को रोकने के लिए ही संघ लोक सेवा आयोग ने पाठ्यक्रम में बहुत ही आमूल चूल परिवर्तन किये हैं ,परन्तु कोई साफ़ दिशा निर्देश न होने से न तो विद्यार्थी समझ पा  रहे हैं की क्या करना है न ही  शिक्षक समझ पा रहे हैं की उन्हें क्या बताना है (वैसे संघ लोक सेवा आयोग हमेशा एक कदम आगे होता है और शिक्षक दो कदम पीछे) ,परन्तु फिर भी छात्र शिक्षकों के भरोसे ही हैं .ऐसे में शिक्षकों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है ,परन्तु बहुत तेजी से फैले इस व्यवसाय में पढ़ाने वाले शिक्षक वे लोग हैं जो किसी प्रकार सिविल सेवा में जाने में असफल रहे ,और इस व्यवसाय को चुना ,इस व्यवसाय में वे सफल भी हैं आर्थिक रूप से और जीवनयापन करने के स्तर से भी  परन्तु कुंठा अभी भी है इनमे .इसका कारण यही है की ये अपने आपको दिल्ली में स्थापित रखने और कोचिंग व्यवसाय में बने रहने ,दुसरे शिक्षक से अधिक फीस बढ़ा  देने और बाजार में अपनी किताब निकाल देने की होड़ में लगे रहते हैं .इस प्रकार वे शिक्षण कार्य को अपनी जिम्मेदारी नहीं समझ पाते और एक बहुत बड़ी फ़ौज जो आई ए एस ,पी सी एस और तमाम बड़े ओहदे को पाने का सपना लेकर आती है उसके साथ बहुत बड़ा प्रपंच खेलते हैं  है।हर वर्ष ये शिक्षक अलग अलग कार्यक्रम चलाते हैं जो साप्ताहिक टेस्ट से सम्बंधित होता है और इन टेस्ट पेपर्स को अपने उन छात्रों से तैयार करवाते हैं जो कभी प्रारंभिक परीक्षाओं को भी पास नहीं कर पाए ,ऐसे में उन टेस्ट की गुणवत्ता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है ,और यह प्रक्रिया हर नए छात्र को आकर्षित करने के लिए होती है पुराने छात्र बार बार धोखे मिलने पर गुणवत्ता के बारे में यह जान  जाते हैं की कौन से सामग्री उचित है और कौन से अनुचित,ऐसे में बहुत समय निकल चुका  होता है।और आई ए एस ,पी सी एस एक सपना बन जाता है 
दिल्ली में इन शिक्षण संस्थानों में शिक्षण कार्य के पीछे हॉस्टल का व्यवसाय भी चलता रहता है,जिनमे रहना छात्रों की मजबूरी है और आवश्यकता भी, पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रांगण  में कुछ छात्र-छात्राओं  ने अनशन किया था की उन्हें कम से कम में आवास सुविधा उपलब्ध कराई जाये ,परन्तु इन निजी संस्थानों अर्थात कोचिंग संस्थानों से सम्बंधित होस्टल्स में कोई सुनवाई नहीं है ये लोग भारत के निवासी भी हैं इस पर भी संदेह है ये लोग टैक्स की चोरी करते हैं बिजली का बिल 7रूपया प्रति यूनिट से लेते है ,बिल कभी नहीं देते हैं दो तीन साल पहले सिविल सर्विसेज की परीक्षा में बैठने वाले छात्रों ने भी एक रैली निकाली थी इनके विरोध में ,पर इन लोगों ने चप्पल जूते फेंक फेंक कर अपमानित किया था और साथ में बड़ी बड़ी धमकियाँ भी की कमरे का किराया बढेगा और बिजली का बिल भी ,नतीजा यह हुआ की भावी अधिकारी वर्ग शांत भाव से अध्ययन और अध्यापन में लग गया ,अब इतनी मुश्किल परिदृश्य में यदि शिक्षण सामग्री भी  धोखे देने वाली  हो तो सब कुछ अन्धकार में हो जाता है 
कुशल शिक्षक ही सर्वगुण संपन्न विद्यार्थियों एवं समाज का निर्माण कर सकता है ,वर्तमान समय में शिक्षकों की आर्थिक स्थिति बहुत तेजी से बदली है क्योंकि इन्होने अपनी फीस दोगुना कर दिया अचानक जो शिक्षक हिंदी और दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे वह सामान्य अध्ययन में सम्मिलित सारे  विषय(भूगोल गणित ,विज्ञान ,विज्ञानं और प्रौद्योगिकी संविधान तार्किक क्षमता,अंग्रेजी इतिहास राजनीती विज्ञानं,पर्यावरण) सब कुछ पढ़ाने लगे  और लोग एडमिशन भी लेने लगे ,लोक प्रशाशन पढ़ाने वाले शिक्षकों ने भी यह करना प्रारंभ कर दिया .ऐसे में गुणवत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगता है ,50हजार तक की फीस लेने वाले ये शिक्षक मात्र 3 महीने में पूरे विषय को पढ़ाने का दावा करते हैं जो मृग मरीचिका है .इन शिक्षकों का बहिष्कार होना चाहिए .
आर्थिक स्थिति बहुत मजबूत होने के कारण इनका स्वयं का व्यक्तित्व एवं शिक्षण कार्य प्रभावित हो रहा है  ये शिक्षक अन्य व्यवसाय भी शुरू कर रहे हैं ,अपने भविष्य को सुरक्षित करते हुए ये लोग छात्रों के साथ बहुत  बड़ा अन्याय कर रहे हैं . ऐसे में आवश्यक हो जाता है की समाज ऐसे शिक्षकों पर नजर रखे मुख्यतया वे छात्र जो इन बड़ी परीक्षाओं की तैयारी करना चाहते हैं 
इन शिक्षकों की विद्रूप  परंपरा को बढ़ावा मिला है कुछ समाचार पत्रों के द्वारा भी जो छात्रों में बहुत प्रसिद्द(द हिन्दू,दैनिक भास्कर,) है ,इन समाचार पत्रों में यदि इन कोचिंग संस्थानों को प्रचार मिल जाता है तो ऐसा लगता है की उन्हें उत्कृष्टता का प्रमाणपत्र  मिल गया है ,यह प्रचार दोनों तरफ से ही होता है ,कोचिंग संस्थान  कहते हैं की इनको पढो और समाचार पत्र  कहते हैं की इसमें पढो,यह कालचक्र जमींदार और किसान की तरह चलता रहता है ,पिछले दिनों एक शिक्षक के यहाँ जो हिंदी के प्रसिद्द शिक्षक हैं उनके यहाँ "कर अधिकारियों" का छापा पड़ा  जो अचानक से सामान्य अध्ययन पढ़ाने लगे थे .
ऐसे में सभी बिन्दुओं पर दृष्टिपात करें तो यह लगता है यहाँ जिन परम्पराओं का निर्माण हो रहा है की एक दुसरे की आर्थिक स्थिति देखकर लोग शिक्षक बन रहें है ,इनमे संवेदनहीनता है,और इतने बड़े वर्ग को जिन्हें ये लोग खड्ड में डाल रहें है ये देश के विकास में किस प्रकार सहायक होंगे?और गलती से अधिकारी बन भी गए तो ऐसे अनैतिक लोगों से देश में क्या संस्कार पैदा होगा ,ध्यान देने पर यह स्पष्ट हो जाता है की हमारी शिक्षण संस्थाओं,शैक्षिक पाठ्यक्रमों एवं शिक्षा की पद्धति में कहीं न कहीं कोई असंगतता अवश्य है जिसके कारण हमें ऐसे समाज का दर्शन हो रहा है ,और जिसमे आई ए एस ,पी सी एस,जैसे जिम्मेदारी भरे पदों पर आसीन होने वाले लोगों की तैयारी करवाने वाले शिक्षक ऐसे व्यक्तित्व का परिचय दे रहें हैं जिनमे पूरी अराजकता अशांति,स्वार्थ,कुंठा ,और अपने को सम्पूर्ण समझने का प्रयास है क्योंकि ये शिक्षक समाज में अनैतिक कार्य और इतनी कमियों के बाद भी बहुत प्रसन्न दिखाई देते है