Sunday, 30 December 2012

एक बहुत ही संमृद्ध कविता ....अंशुमन जी द्वारा

प्रेम मेरा .........कैसे पुष्पित हो ...अंशुमान पाठक "प्रीतू"
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ह्रदय तुम्हारा बंजर भूमि, कहो प्रेम मेरा .........कैसे पुष्पित हो l

हुआ नहीं द्रवित पत्थर ह्रदय,
पर जतन किये मैंने हज़ार l
हाँ मैंने रातें रोशन की हैं,
लेकर हथेलियों पर अंगार l
मेरी खरी-खरी बातों पर ,
आखिर तुम ईमां ला न सके ;
तोड़ मरोड़ मेरे सच को,
तुमने झूठ कहा हर बार l
प्रीति को तुम क्यों समझोगे, जब मति तुम्हारी......कलुषित हो l
ह्रदय तुम्हारा बंजर भूमि, कहो प्रेम मेरा ..........कैसे पुष्पित हो ll१ll


मेरी आकांक्षाओं का शिशु ,
स्नेहांचल को तरस रहा है l
बेरंग नीरस मेरा जीवन ,
नागफनी के सदृश रहा है l
कई बसंत यूँ ही हैं गुज़रे ,
झूले बिन कई निकले सावन ;
थक गए बदरिया तकते-तकते,
अब बरस रहा है कब बरस रहा है l
पर इक नज़र इधर ऐसे न की, जिसमें नेह तुम्हारा परिलक्षित हो l
ह्रदय तुम्हारा बंजर भूमि, कहो प्रेम मेरा ..........कैसे पुष्पित हो ll२ ll

मेरे कन्धे बोझिल हैं अब,
ये भार सहन नहीं होता l
हम हँसते खुश भी रहा करते,
गर वीरान चमन नहीं होता l
हम तो अबस परेशां थे ,
ऐसा ही है दस्तूर जहाँ का ;
दफ़न को जमीं नहीं मिलती,
लाशों को मयस्सर कफ़न नहीं होता l
वहाँ मैं ढूंढूं कैसे विश्वास, हर नज़र................ जहाँ सशंकित हो l
ह्रदय तुम्हारा बंजर भूमि, कहो प्रेम मेरा ..........कैसे पुष्पित हो ll३ll

-अंशुमान पाठक “प्रीतू”
हमीरपुर (उ०प्र०)

Thursday, 20 December 2012

महिला सुरक्षा में "जीरो टोलरेंस" की नीति

शुरुवात वास्तव में दिल्ली रेप केस से नहीं होती यह तो वास्तव में हर प्रदेश और समाज की अन्दर तक समां जाने वाली बुराइयों में से एक है .यह रेप इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो गया की यह घट्ना  राजधानी दिल्ली में तब हुई जब संसद का सत्र चल रहा था।चर्चा का मौका था तो खूब चर्चा हुई आंसू बहाए गए ,क़ानून  लाने की वकालत की गयी पर इन सबके बीच वास्तविकता कहीं खो सी गयी वह यह की जो समाज आज उठ खड़ा हुआ दिख रहा है उसका आधार ही खोखला है।पूरी तरह जड़ हमारे समाज में जब तक ऐसी वीभत्स घटनाएँ  न घटें  तब तक अगर उठता नहीं है तो मैं तो इसे मरा  हुआ ही मानती हूँ।
वैसे तो यह मौका विरोध करने का और इस विरोध में सुर से सुर मिलाने का है पर अगर बात यहीं तक रह जायेगी तो बेमानी हो जायेगा सब कुछ .क्यूँ न हम समस्या की जड़ की ओर चलें जो की जगह जगह बिखरी है और अलग अलग तरह से प्रभावित हो रही है .
पहला मुद्दा और कारण तो यह है की महिलाओं में धैर्य बहुत है और यह धैर्य अब "डर" में बदल गया है और अपमान सहने की आदत सी हो गयी है "जीरो टोलरेंस" की जो बात उनमे होनी चाहिए वो छू कर भी नहीं गयी है .बस में छेड़छाड़ आम बात है उनके लिए,कोई भद्दे कमेन्ट करके निकल जाता है तो वो या तो नजरंदाज कर देती हैं या "सामाजिक डर" उन्हें खाए जाता है।और "चलता है" दृष्टिकोण उनके लिए घातक साबित हो रहा है .मुझे नहीं समझ आता है क्यूँ महिलायें किसी की छेड़छाड़ का तुरंत बेहद कठोर जवाब नहीं देती अपने मुख से या फिर हाँथ पैर चलाकर उन्हें तुरंत घोर विरोध करना होगा वर्ना परिणाम आगे घातक  ही रहेंगे।तुरंत प्रशासन की मदद लेनी चाहिए जनता में शोर मचाना चाहिए और विभिन्न महिला संगठनो के साथ लगातार संपर्क में रहना चाहिए ,किसी दूसरे लड़की के साथ होती हुई छेड़छाड़ का वैसे ही विरोध करना होगा जैसे की यह छेड़छाड़ स्वयं के ही साथ हो रही है .
दूसरा कारन थोडा अजीब लगता है पर सच तो यही है की शराब की धूर्तता बहुत से संगीन अपराधों के पीछे मजबूत हांथों का काम करती है।चंद  "शरीफ" दारूखोरों की वजह से शराब को वैद्यता मिली हुई है .जबकि 90 फ़ीसदी शराबी समाज में विभिन्न अपराधों के पीछे होते हैं।अभी हाल के दिनों में जितने भी रेप केस पाए गए है उनमे से 95 फ़ीसदी शराब के नशे में किये गए हैं।अपनी बेटी बहन के साथ किये गए लगभग सभी रेप केसों में शराब के अभिन्न  योगदान को हमें याद रखना होगा।महिलाओं को समझना होगा की यदि उनका  पुरुष मित्र   शराब का सेवन करता है तो वे घोर प्रतिरोध दर्शायें वर्ना उनका ये मित्र किसी न किसी के लिए मुसीबत जरूर बन सकता है  शराब को  सिर्फ आय स्रोत के रूप में सरकार लेती है पर इसके सामाजिक और अन्तर्निहित आर्थिक नुकसानों के बारे में समाज में "चिन्तक" वर्ग सक्रिय नहीं होता।कहने की बात नहीं है कारन साफ़ है की शायद ही   कोई आधुनिक सामाजिक चिन्तक या वरिष्ठ मीडियाकर्मी हो जो शराब का सेवन न करता हो और सभी अपने अपने स्तर  से महिलाओं का शोषण करते दिखाई पड़ते है .
आज कल दो चार दिनों से जो माहौल बना हुआ है चाहे वो फेसबुक में हो या अन्य मीडिया माध्यमो में ऐसा लग रहा है की पुरुष वर्ग वास्तव में चिंतित है पर असलियत इतर है इन सब से जितने भी ये पुरुष हो हल्ला मच रहे हैं लगभग सभी अपने अपने स्तर से शोषण की विधा में महारथी हैं .रेप सिर्फ वास्तविक सेक्स सम्बन्ध ही नहीं है ये अपनी व्यापकता में हर उस बात को समेटे है जिसे पुरुष "मौजमस्ती" का नाम देता है ,लड़कियों को घूर के देखना ,भद्दे कमेन्ट करना,पीछा करना ,अनावश्यक छूने  का प्रयास ,पब्लिक प्लेस में भद्दी भद्दी गलियों का प्रयोग ,सामने भद्दे गीत गुनगुनाना  आदि ये सभी रेप की ओर ही जाते हुए कदम हैं इनमे से कुछ कदम सिसक जाते हैं तो कुछ आगे बढ़कर ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं।
एक और कारन है जिसकी चर्चा मैं यहाँ करना चाहूंगी  भले ही मुझे संकीर्णता की माला पहना दी जाए वो ये की अश्लील विज्ञापन और फ़िल्मी गीत ,वस्त्र  इत्यादि का भी योगदान कुछ कम नहीं .मेरा यह ठोस रूप से मानना है की यदि आप किसी  उबड़ खाबड़ जमीन में खेल खेलना चाहते हैं तो पहले उसे इस काबिल बनाना होगा की खेलते वक़्त आपको चोट न लगे आप यह नहीं कह सकते की भाई मैं तो खेलूंगा और जब खेलते वक़्त गंभीर चोट लगे तो जिम्मेदार प्रशासन को ठहराएं।किसी भी किस्म के वस्त्र पहनना कोई पाप नहीं पर हम जो नयी चीज समाज में दिखाना चाहते हैं  क्या समाज उसके लिए तैयार है ? और यदि नहीं तो हम कितने स्वार्थी है की समाज को बिना तैयार किये हुए ही सिर्फ अपने "मूल अधिकारों" का प्रयोग करते हुए कुछ भी उन पर थोप  देते हैं जब की हमारा " मूल कर्तव्य" हम कहीं भुला देते हैं .जिस प्रकार कोई 3D फिल्म देखने से पहले वो चश्मा लगाना जरूरी है जिससे आप  उसका आनंद  ले सकें उसी प्रकार अपने समाज में कोई नया कल्चर दिखाने या जोड़ने से पहले हमें जन मानस को उसके लिए तैयार करना होगा वरना उसका प्रभाव क्या होगा यह तो जनता ही तय करेगी।क्या कभी कोई फिल्मकार का या अदाकार ने  कभी समाज को उस बात के लिए तैयार करने की कोशिश की है जिसे वो हमें परोसना चाहते हैं? .और अगर फिर भी कोई उबड़ खाबड़ पिच पर बैटिंग की जिद करता है तो अपने मुह तोड़ने लिए उसे तैयार रहना होगा।इसलिए यह भी समाज में मानसिक वाचालता का कारन बन जाता है जबकि वास्तव में ये है नहीं....
हमें चाहिए की हम मिलकर हर लिहाज से इससे लड़ाई की योजना बनायें और लड़ने के लिए तैयार हों ."दामिनी केस" भुलाया नहीं जाना चाहिए और ये आन्दोलन जो  पुरे देश में हमारी महिलायें कर रही है जो उत्तेजना है उसे सही और सकरात्मक दिशा  देनी होगी ."जीरो टोलरेंस" का सिद्धांत अपनाना होगा।और यदि पुलिस प्रशासन हमारी मदद को तैयार नहो होता तो प्रशासन के खिलाफ भी आवाज बुलंद करनी होगी .अपने सम्मान की रक्षा उर प्रत्येक महिला के सम्मान की रक्षा का दायित्व हम पर है न हम खुद पर कोई अन्याय सहें  और न ही किसी को सहने दें।घटना चाहे देश के किसी भी कोने में हो उसे उतनी ही तवज्जो देनी होगी ..प्रत्येक गाँव स्तर  पर "रेप विरोधी समिति" को वैधानिक मान्यता देनी होगी और ऐसी समिति यदि किसी भी पुरुष के खिलाफ किसी महिला की शिकायत को लेकर पहुंचे तो उनकी "प्राथमिक सूचना रिपोर्ट" लिखने की बाध्यता पुलिस को होनी चाहिए .अगर ऐसा होता है तो धीरे धीरे लोकल प्रशासन पर महिला मुद्दों को लेकर संवेदनशीलता बढ़ेगी और पुलिस जो दबंगों की वजह से से रिपोर्ट नहीं लिखती है वो कानूनी रूप से बाध्य होगी।समिति की अनुसंशा  इसलिए क्यूँ की अकेली महिला हो सकता है अपने को कमजोर समझे और हो सकता है उसे डराया धमकाया जा रहा हो ऐसी स्थिति में समिति का सहारा उसे मजबूती प्रदान करेगा और प्रशासन को जवाबदेह बनाएगा।यद्यपि सरकार शायद ही इसे माने पर इस दिशा में विचार जरूरी है। 

Wednesday, 12 December 2012

90 प्रतिशत जनता क्या सचमुच मूर्ख है?

पिछले दिनों श्री मार्कंडेय काटजू को लीगल नोटिस भेजी गई थी कुछ लॉ के छात्रों द्वारा की उन्होंने यह कह कर आम जनता का अपमान किया है की देश की 90 प्रतिशत जनता बेवकूफ है ,,मैंने पेपर में पढ़ा तो सोचने लगी की काटजू सर कैसे इस बात को सिद्ध कर पाएंगे क्या कोई सॉलिड पैमाना बना है मूर्खों की मूर्खता मापने का?कोर्ट तो प्रमाण मांगता है ?तो मैंने सोचा की इस बात को सिद्ध करने के लिए कोर्ट में ही कुछ प्रैक्टिस कराइ जाये तो उचित होगा और न्यायाधीश को साक्षात् प्रमाण उसी वक़्त मिल सकते हैं क्योंकि मुझे तो पूरा भरोसा है की काटजू सर बिलकुल सही कह रहे है
वैसे ये 90 फ़ीसदी का पैमाना लगभग हर जगह ठीक बैठता है अब पत्रकारों को ही ले लीजिये 90 फ़ीसदी पत्रकार एक ही राग अलापते हैं नवीनता के और बुद्धिमत्ता के पत्रकारों में दुर्लभ उदाहरण हैं।लगभग 90 फ़ीसदी पत्रकार किसी  न किसी राजनैतिक दल का कबाब उड़ा रहे हैं।लगभग यही प्रतिशत पत्रकारों का 90 फ़ीसदी समय सरकार को गली गलौज में गुजरता है यही प्रतिशत खास धर्म के तुष्टिकरण में अपना समय गुजारता है।ये बात तो पत्रकारों की हो गयी अब "चिन्तक" आते हैं दुसरे पायदान पर ये ऐसा महारथी वर्ग है जिसकी बौद्धिकता का पैमाना उनके अन्दर "हिन्दू धरम विरोधी" भावना पर निर्भर है।इनकी तेजस्विता सिर्फ इस पर निर्भर है की वो हिन्दू धर्म को अत्यधिक अपशब्द बोल सकें।
इन्ही बौद्धिक चिंतकों में लगभग 90 फीसदी समाज सेवी है (भले ही समाज की 90 फीसदी सेवा न हो प् रही हो ) और इनका पैमाना भी कुछ खास जगहों पर केन्द्रित है जैसे कश्मीर पकिस्तान को दे दिया जाये मुस्लिमों को मनचाहा आरक्षण दलितों को मनचाही छूट यहाँ तक भी ठीक था पर अगर ये ब्राह्मणों को गली देना भूले तो इनकी बौद्धिकता ,बौद्धिक समाज में मिटटी में मिला दी जाती है इसका ख्याल इन 90 फीसदी लोगों को जरूर रहता है !
एक नवीन बौद्धिक वर्ग उभर रहा है या ये कहें की खुद को उभरे दे रहा है ये हैं "दलित चिन्तक"....काश ये दलित चिंतन आंबेडकर से शुरू हुआ होता तब तक तो फिर भी शुभ था पर इस चिंतन का शुरूआती स्तम्भ "दलित की बेटी" सुश्री बहन मायावती से शुरू होता है जो की माया से मोह छोड़ ही नहीं पाई आगे चलकर कई दलित चिन्तक हुए अच्छी अंग्रेजी जानी अच्छे कपडे पहने और शायद आरक्षण के कारण अच्छी सिक्षा भी ली लेकिन मुह हमेशा गालियों से भरा ,अनावश्यक उत्तेजना इस बात को लेकर की सभी ब्राह्मण इनकी दशा के लिए जिम्मेदार है इनमे से कोई भी तार्किक बात करते हुए आपको मिल जायेगा पर आपके तर्क देने पर ये आपको भद्दी बैटन से नवाज देंगे इनका तो  प्रतिशत शायद 99 हो !
अब एक और वर्ग जो इतिहासकारों से सम्बद्ध है जिनके घटिया इतिहास बोध के कारण लगभग 90 प्रतिशत मूर्ख प्रतिवर्ष पैदा हो रहे हैं और इन इतिहासकारों की और इनके उत्पादों की फ़ौज का आंकलन यदि जे।एन।यु,जैसे संस्थानों में जाकर करें तो प्रतिशत 95 भी हो सकता है।
राजनेताओं के बारे में प्रतिशत और उसकी व्याख्या करना ही बेकार है ये सबसे ज्यादा चालाक समझे जाने वाला वर्ग सर्वाधिक आसानी से समझा जा चूका है
अब एक चर्चा उन मूर्खों की हो जाये जो अतिवादी है इनका कोई धर्म नहीं है इनको मै "राष्ट्रिय चिंता "मानती हूँ वैसे तो इसमें कोई विशेष वर्ग नहीं है पर उल्लिखित सभी वर्गों के लगभग 90 फीसदी लोग अतिवादिता का रूप धारण कर चुके हैं 1
वैसे तो लगभग सभी ग्रामीण मजदूर और किसान वर्ग परेशानियों से जूझ रहा है पर इनमे से भी 90 फीसदी लोग बिभिन्न मजदूर एवं किसान संगठनो के जाल में फास चुके हैं अपना काम और समय बर्बाद करके इन संगठनो की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ रहे हैं !
तथाकथित समाजसेवियों से समाज को  दूरगामी हानियों के लिए तैयार रहना होगा  समाज के ये लोग भोले भले या कहे बेवकूफ लोगों को "अधिकार"जैसी खोखली बातों से बहला कर "कर्तव्यों "से दूर कर रहे है ,हर जगह बस लुभाने मात्र के लिए 90 फीसदी समाज सेवी अधिकारों का ढिंढोरा पीट करके उठान करने के बजे घृणा और विद्वेष फैला रहे हैं ,मजे की बात तो ये है की 90 फीसदी लोग इसे समझ हो नहीं प् रहे हैं और यही कारण है की अरविन्द केजरीवाल जैसे लोग अपना राजनैतिक लाभ साध रहे हैं
धर्म गुरु तो वहशी हो चुके हैं 90 फीसदी धर्मगुरु परमात्मा के नाम पर काले धंधे चला रहे हैं ,जनता से धन उगाह रहे हैं और अपने भोग विलास में खर्च कर रहे हैं सैकड़ों सालो से इन धर्मगुरुओं ने ही अकेले सिद्ध किया है की 90 फीसदी जनता महामूर्ख है .......
काटजू सर ने तो सिर्फ सार को ही सामने रखा है अब कोई अदालत जाये या चौराहे पर खड़े होकर शोर मचाये यह सत्य तो बदल नहीं सकता इन आने वाले कुछ वर्षों तक ....

Monday, 26 November 2012

लेओ भइय्या गई भैंस पानी में... जनता, भारतीय जनता, समाजवादी, बहुजन, सर्वजन, किसान-मजदूर, जनशक्ति, लोक जनशक्ति, कौमी एकता, समता, अपना दल आदि आदि ब्रांड के झुनझुने तो पहले से ही बाल-सुलभ जनता का दिल बहलाने-फुसलाने के लिए झन-झन-झन-झन बज रहे थे...

अब अरविन्द दउव्वा भी आम जनता के लिए नई पिपिहिरी ले आए... यह पिपिहिरी भी शुरू में तो बढ़िया बजेगी, जनता बजा-बजाकर खूब मस्त रहेगी, झूमेगी लेकिन फिर कुछ सालों बाद सिर्फ कान फाड़ेगी... आज़ादी के पहले से लेकर आज़ादी के बाद तक आम जनता को लौकिक सुख दिलाने हेतु अनगिनत पार्टियाँ और दल बने लेकिन इन दलों के सर्कस में पिसती आम जनता के आंसुओं से ज्यादातर दल दलदल बन गए... आज इन दलों के दलदल में समूचा देश फंसकर गर्त में जा रहा है...
आम जनता को तो सूखी रोटी मिल जाये वही बहुत है, पार्टी तो नेताओं की ही होती है...

अरविन्द जी, हार्दिक बधाई और 126 करोड़ शुभकामनायें... लेकिन संसदीय चुनाव में 542 उजले लेकिन जिताऊ प्रत्याशी ढूंढना किसी बजबजाते नाले से चवन्नी ढूँढने के बराबर का ही काम है... लगे रहो अरविन्द भाई... खुदा हाफ़िज़...

Tuesday, 20 November 2012

 विज्ञानमय: शिक्षा और दृष्टिकोण 

गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर ने अपनी एक कृति में  कहा था "जहाँ तर्क की स्पष्ट धरा  बुराइयों के दलदल में दिग्भ्रमित न हो ,जहाँ सतत प्रखर हो रहे विचार और कार्य की और हमारा मन उन्मुख हो ,परमपिता से मेरी प्रार्थना है की वे ऐसी आजादी से परिपूर्ण स्वर्ग में मेरे देश को उदित करें!"
भारतीय साहित्य में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का यह छोटा पर अद्भुत प्रसंग है !
हमारे भारतीय ग्रन्थ,वांग्मय जैसे महाभारत और उपनिषद में चर्चा परिचर्चा ,बहसों विवादों,प्रश्नों तथा संवादों से भरे हैं!दरअसल चर्चा ,बहस और विश्लेषण वैज्ञानिक दृष्टिकोण के ही अभिन्न अंग हैं ,विज्ञानं सत्य का उद्घाटन करता है और प्रकृति के छिपे रहस्यों से पर्दा उठता है ,परन्तु प्राकृतिक रहस्य को समझना और उसके रहस्यों के विषय पर एक व्यक्ति के मन में उठी जिज्ञासाओं को पूर्ववर्ती अवधारणाओं से जांचना परखना भी आवश्यक है!जिज्ञासा कमोवेश हर व्यक्ति में होती है इसका अर्थ यह है की वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मूल आधार सबमे निहित होता है केवल उसे अभ्यास की मदद से जीवन के साथ जोड़ना अपेक्षित है इस अभ्यास से व्यक्ति का मस्तिष्क अति जिज्ञासु और ग्रहणशील हो जाता है .सबसे आकर्षक बात यह है की कोई भी इसको अपना सकता है क्योंकि मनुष्य में अदम्य क्षमता है !

'स्वतंत्र भारत के लिए विज्ञानं'और वैज्ञानिक दृष्टिकोण नेहरू जी के मन में तब उपजे जब वे कारावास में थे ,हम जैसे ही कागज़ और प्लास्टिक का उदहारण लेकर समझते हैं की कागज़ का तो प्रकृति में पुनर्चक्रण हो जाता है पर प्लास्टिक का नहीं क्योंकि यह वर्षों तक ये प्लास्टिक मिटटी में पड़े रहते हैं और नष्ट नहीं होते तथा प्रकृति को नुक्सान भी पहुचाते हैनौर संतुलन बिगड़ते हैं ,यह तथ्य जानने के बाद जागरूक व्यक्ति को प्लास्टिक का न्यूनतम उपयोग या न के बराबर उपयोग करने की आदत दाल लेनी चाहिए 
भारतीय संविधान के मूल कर्तब्य के भाग 4क में वैज्ञानिक द्रिस्तिकों को स्थान देकर हमें चैतन्य किया गया है की यह दृष्टि मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का आवश्यक आधार है .
विज्ञानं की संकल्पनाएँ साधारण पढ़े लिखे लोगों के अधिक पल्ले नहीं पद पाती  पर भाषा और शैली साधारणतम  हो तो जटिल बातों को वे आसानी से समझ लेते हैं ,और नहीं समझते तो पढ़े लिखे वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले व्यक्तियों को समाज के साधारण लोगों और देश के लिए यह बीड़ा उठाना होगा की वे उन्हें जागरूक बनायें क्योंकि विकास की परिभाषा यही है की "चाहे कोई वैज्ञानिक हो डाक्टर हो ,न्यायाधिकारी हो ,प्रशाशनिक अधिकारी हो या कोई प्रचलित व्यक्ति हो उसे दंभ में झूमने के बजाय  आम आदमी के लिए उत्तरदायी होना होगा और उसे भी उत्तरदायी  बनाना होगा!"
भारत सरकार ने 1982 में विज्ञानं  एवं प्रौद्योगिकी विभाग ,भारत सरकार के अंतर्गत राष्ट्रीय विज्ञानं एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद् (एन सी एस टी सी )का गठन  किया जिसका उद्देश्य विज्ञानं को लोकप्रिय बनाकर समाज में वैज्ञानिक जागृति  लाना है !एन सी एस टी सी विज्ञानं को केंद्र में रखकर कार्यशाला ,संगोष्ठी ,नुक्कड़,नाटक ,टी वी,रेडियो ,धारावाहिक आदि जैसे कार्यक्रमों का आयोजन करता रहता है इसके लिए स्वायत्त संस्थान  "विज्ञानं प्रसार" की स्थापना की गई है ,और मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने "वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग" की स्थापना की है !
विद्यालयों से यह निवेदन है की बच्चों के अधिकार की वस्तुएं उन्हें उन तक पहुचाएं ,भारत सरकार की योजनाओं का लाभ उठायें और भ्रष्टाचार को पनपने से रोकें ! आप प्रश्न करेंगे तभी तो जवाब दिया जायेगा ! आप स्वतः  पहल नहीं  करेंगे तो भारत सरकार की योजनाओं में दीमक तो लग ही रहें हैं और लगते रहेंगे !सबसे अनुरोध है मेरा अपना काम इमानदारी और वैज्ञानिक सोच के साथ करें ,शिक्षकों से आशा है की वे सबका विकास करें अपना और समाज का क्योंकि यह वर्ग ऐसा वर्ग है जो 65 सालों से आराम ही कर रहा है और प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से आराम करने की सलाह भी दे रहा है ...

Monday, 19 November 2012

जनसँख्या स्थिरीकरण:तात्कालिक और दूरदर्शी आवश्यकता

                         जनसँख्या स्थिरीकरण:तात्कालिक और दूरदर्शी आवश्यकता  

जनसंख्या मानव समूह का ऐसा प्रखर पुंज है,जो निर्धारित भौगोलिक क्षेत्र में जैविक संसाधनों के अतिरिक्त प्राकृतिक व्यवस्था को बनाये रखते हुए; आर्थिक,सामाजिक,विकास के माध्यम से समस्त मानव जाति का अस्तित्व बनाये हुए है!जनसंख्या एक ऐसी समस्या भी है, जो लगातार पांव पसार रही है और इस समस्या से भारत वर्ष ही नहीं समस्त विश्व जूझ रहा है! जनसंख्या बढती जा रही है संसाधन घटते जा रहे है. विश्व की प्रतिवर्ष होने वाली जनसंख्या वृद्धि में भारत का योगदान लगभग एक करोड़ साठ लाख हुआ करता है. जबकि भारतवर्ष विश्व के उन प्रमुख देशों में से एक है जहां जनसंख्या वृद्धि  की विस्फोटक स्थिति को भांपते हुए 1952 में ही परिवार नियोजन की शुरुआत कर दी गयी थी और "जनसंख्या नियंत्रण,संतुलन और स्थिरीकरण" पर विस्तृत चर्चा भी की गयी थी.परन्तु. वर्तमान समय में इसका बहुत व्यापक असर दिखाई नहीं पड़ता.वैसे तो पहले एक भारतीय महिला प्रजनन आयु में औसतन 6 बच्चों को जन्म देने की क्षमता रखती थी . परन्तु अब यह घटकर 2.85 पर पहुंच चुकी है, फिर भी जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण नहीं हो पाया है इसका कारण यह पाया गया की अभी भी "अधिक जन्मदर तथा निम्न मृत्यु दर" की स्थिति में प्रजनन आयु वर्ग के दम्पत्तियों की संख्या का प्रतिशत कुल जनसंख्या के अनुपात में सर्वाधिक है और उसके आगे भी कुछ कारण हैं  जैसे -गर्भनिरोधन की सेवाओं का ना प्राप्त हो पाना,निरक्षरता इत्यादि मुख्य हैं.छत्तीसगढ़ का उदाहरण देना आवश्यक है यहां पर "जनसंख्या स्थिरीकरण"  शासकीय,अशासकीय  के समेकित समन्वित प्रयास से स्थापित किया जा रहा है.छत्तीसगढ़ की जनसंख्या भारत की कुल जनसंख्या का 2.03प्रतिशत है और यहां पर जनसंख्या  स्थिरीकरण के ऐसे कार्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं जिनमे महिलाओं की भागीदारी परिवार कल्याण कार्यक्रमों के प्रति सर्वाधिक है.90% महिलाऐं इनमे बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती हैं  परन्तु अब भी यहां 3 या इससे भी अधिक बच्चों को जन्म देने वाली माताओं का प्रतिशत 47.01 है. जबकि छत्तीसगढ़ में महिलाओं की साक्षरता का प्रतिशत है 52.28% है.इन बिन्दुओं पर सामाजिक स्तर पर रचनात्मक एवं ठोस पहल अत्यंत आवश्यक है .ये कार्यक्रम इसलिए 100 प्रतिशत सफल नहीं हो पा रहे हैं क्योंकि इसमें पुरुष सहभागिता की अत्यंत कमी है जो की अपेक्षित है.पुरुषों का सहयोग होगा  तभी जनसंख्या स्थिरीकरण की राष्ट्रीय नीति को सफल स्वरुप दिया जा सकता है !
सभ्यता की ओर उन्मुख मानव जाति "आहार ,आवास,वातावरण तथा प्राकृतिक सुविधाओं" को प्राप्त करने हेतु मानव समूहों को वर्गों में बांट-बांट कर भी वृद्धि कर रही है !इस विकास के साथ ही भौगोलिक क्षेत्र तथा प्रकृति के साम्राज्य में कटौती हो रही है .जो की आने वाले समय के लिए बहुत ही घातक है . 
जनसंख्या स्थिरीकरण की आवश्यकता क्यों है ?ये भारत वर्ष का लगभग हर व्यक्ति जानता है फिर भी स्पष्ट रूप से यदि देखा जाये और अधिक केन्द्रित होकर महसूस किया जाये तो तमाम कारण स्पष्ट होते हैं! जैसे- सामाजिक आर्थिक संतुलन बनाना,खाद्य सुरक्षा,बेहतर बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना,आवासीय समस्या का समाधान,निर्धनता और बेरोजगारी उन्मूलन, गांव से शहरों की ओर पलायन रोकना,सामाजिक शांति और सुरक्षा एवं समाज में नैतिक मूल्यों को बनाये रखने जैसे अति महत्वपूर्ण कारण है और देश की तात्कालिक समस्याओं में शुमार हैं !
22जुलाई 2002 को "जनसंख्या स्थिरीकरण कोष" का गठन का किया गयाथा, यह घोषणा प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग की पहली बैठक के संबोधन के समय किया गया था और 100 करोड़ रुपये प्रारंभिक पूँजी के रूप में उपलब्ध कराया गया! सामान्य लोगों को  नियमों और सुविधाओं की पहल के  द्वारा  प्रेरित करने के लिए विशेष प्रयास भी किये गए, वैसे तो राष्ट्रीय नीति का उद्देश्य 2010 तक दम्पत्तियों  की बच्चों की प्रजनन  संख्या को घटाकर  1.6 पर लाना था और प्रजनन शिशु स्वस्थ्य कार्यक्रम  को बहु आयामी बनाया जाना था पर लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सका. 
राष्ट्रीय नीति तो अच्छी है परन्तु इस कार्यक्रम के लिए "आम जनों का सहयोग" ही अधिक अपेक्षित दिखाई पड़ता है .देश के दम्पत्तियों को यह याद रखना होगा की यदि जनसंख्या स्थिरीकरण की वैचारिक उर्जा को वे ग्रहण करने में असमर्थ रहे तो अभावग्रस्त,अल्प सुविधाभोगी जैसे हर क्षेत्र में असुविधा झेलने की नियति को प्राप्त होंगे.नियति अभिशाप ना बन सके इसके लिए  जरूरी है की राष्ट्रीय नीतियों का पालन  "अच्छी और दृढ इच्छाशक्ति " से निभाने के  भरपूर प्रयास उन्हें करने होंगे वे एक सफल और दृढ मनोबल विकसित करें तभी हमारा देश जनसंख्या स्थिरीकरण के अपेक्षित राष्ट्रीय उद्देश्य को प्राप्त कर पायेगा और हम विकास की ठीक परिभाषा को ग्रहण कर पाएंगे .

लाल कोरिडोर और सरकारी अकर्मण्यता

                              लाल कोरिडोर और सरकारी अकर्मण्यता   
भारतवर्ष में कुछ खास वर्ग की अपनी न्याय प्रणालियों  को देखकर मै प्रायः विचलित हो जाती हूं जो हमारी न्याय व्यवस्था में यकीन नहीं रखते ,शायद यह उनकी ढीठता है या उनकी निरक्षरता या फिर  उनकी निराशा ?,उन्ही में एक बहुत बड़ा वर्ग नक्सलियों का है जिनके बारे में देश में तभी चर्चा होती है जब वे कोई कांड करते है जैसे किसी को किडनैप कर लेना या फिर अपनी मांगों के लिए उधम मचाना ,लेकिन मुझे लगता है की वो समस्याएं जो हमारी ज़िन्दगी के लिए "गले की हड्डी और शर्मसार करने वाली" हैं उनपर एक बड़ी नीति के माध्यम से विजय पाने के लिए निरंतर प्रयास होते रहने चाहिए ,देश में  नक्सलियों के निशाने पर तो  राज्यों के जनप्रतिनिधि और सुरक्षाकर्मी  रहे ही हैं लेकिन नक्सलियों के द्वारा पंचायत प्रतिनिधियों को भी धमकाना और गोली से उड़ाना एक निराशाजनक भाव है.  गृह मंत्रालय कई सालों से यह अवश्य मान रहा है की स्थानीय स्तर पर शासन और विकास के आभाव को दूर करके ही माओवादी चुनौती से निपटा जा सकता है ,परन्तु इसके क्रियान्वयन के लिए कभी भी देशव्यापी प्रयास या तो हुए नहीं या फिर जहां हुए हैं उनको माओवादियों के विरोध के चलते बहुत बड़ा धक्का लगा है ,लगभग हर बुद्धिजीवी को पता होगा की पिछले दिनों इन माओवादियों ने विदर्भ इलाके में निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों को अपने पद से सामूहिक इस्तीफ़ा देने की धमकियां देकर राज्य प्रशासन को खुले आम चुनौती दी थी जिसे हम  नक्सलियों का खौफ कह सकते हैं ,यही नहीं ये माओवादी अपने प्रभाव वाले इलाकों में न्याय अन्याय का फैसला भी कर रहे हैं ,उनका मानना है कि पंचायती राज व्यवस्था  और वर्तमान चुनाव प्रणाली से  विकास हासिल नहीं किया जा सकता ,उनकी दलील है की जिस तरह सांसद और विधायक चुनाव जीतने के बाद सरकारी धन की लूट कर रहे हैं ,उसी प्रकार पंचायतों के  नवनिर्वाचित जनप्रतिनिधि भी पद हासिल करने के बाद अपनी मनमानी कर रहे हैं !वैसे तो नक्सलियों के द्वारा जन-अदालत लगाकर लोगों को सजा देने की ख़बरें भी समय समय पर आती रहती हैं ,खासकर ऐसे व्यक्ति को जिसे स्थानीय अदालत ने साक्ष्यों की कमी के अधार पर बरी कर दिया हो !नक्सली संगठन के लोग न्यायधीश की भूमिका में मौत के फरमान सुनाते हैं ,वे कहते हैं की देश की अदालत ने तुम्हे बेशक दोषमुक्त किया है लेकिन ऐसा नहीं है की तुमने अपराध किया नहीं है ,हमारी अदालत में तुम्हारे ऊपर लगे हुए सारे आरोप सद्ध हुए हैं लिहाजा तुम मौत के सजा के हकदार हो! अक्सर सुनाई देता है अदालत ने संगीन जुर्म करने वाले ब्यक्ति को साक्ष्य और सबूतों की अपर्याप्तता के अधार पर बाइज्जत बरी कर दिया ,ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कभी अपराध करने वाला ब्यक्ति गवाहों को धमकाकर या क़त्ल कर अपने लिए रास्ता ढूंढ लेता है या फिर अधिक पैसे का लालच देकर गवाहों को खरीद लिया जाता है ,इसीलिए "पुलिस रेफोर्म" के लिए बनाई गई "मलिमथ समिति" ने सुझाव दिया था की गवाहों के मुकर जाने पर उन्हें अनिवार्य रूप से सजा हो और उनकी सुरक्षा का दायित्व भी पुलिस बल की वह शाखा करे जिस पर न्यायलय का नियंत्रण हो.
वैसे तो केंद्र सरकार की मंशा  इस मामले में हमेशा आग में घी डालने की रहती है,परन्तु नक्सलवादियों की जो पुरानी मांगे हैं उन पर विचार तो होना ही चाहिए जैसे- भूमि सुधार कानून को पूरी ईमानदारी के साथ लागू करने ,कृषि भूमि का सही वितरण करने, भूदान की जमीनों पर वास्तविक मालिकों का अधिकार दिलाया जाना चाहिए,विदर्भ में तो नक्सल पनपने का कारण मुझे राज्य सरकार और केंद्र सरकार कि लापरवाही ही लगती  हैं और कोई नहीं ,इतनी मन्त्रनाये करने के बावजूद "लाल गलियारे" निरंतर विस्तार ले रहे हैं! सत्ता में बैठे हुए लोग अपनी नीतियों की समीक्षा क्यों नहीं करते ?
वास्तविक बामपंथी कम्युनिस्ट क्रांतिकारी होने का दंभ भरते हुए सन1970 से ही नक्सल विद्रोही दर्जनों गुटों में बंट गए यहां तक कि इस आन्दोलन के मुख्य निर्माताओं में से रहे "सत्यमूर्ति और सीतारमैया" ने भी अपने आप को विचारधारात्मक असंतुष्टि के चलते पार्टी से अलग कर लिया, और आगे चलकर वेस्ट बंगाल के "मानिक" और कर्नाटक की तो पूरी पार्टी ही टूट गयी और अभी हाल में "सब्यसाची पांडा" को भी पार्टी के महासचिव गणपति ने सामान कारणों के कारण अलग कर दिया,नक्सलियों ने सदैव से ही कामरेड माओ की विचारधारा स्वयं को प्रेरित किया पर वास्तविक रणनीति में नक्सल लीडरशिप लैटिन अमेरिका के "चे ग्वारा के फोको आतंकवाद" का अनुसरण करती आई. चे ग्वारा ने क्यूबा में सशस्त्र समाजवादी क्रांति के दौर में "फोको आतंकवाद" की रणनीति विकसित की थी !ग्वारा ने दलील दी थी की गुरिल्ला सशस्त्र कार्रवाई की रणनीति से हासिल प्रचार द्वारा ही किसानो के बीच आधार क्षेत्र का विस्तार किया जाए और किसानो का सक्रिय समर्थन हासिल करने की कार्यनीति अपनाई जाये ,परन्तु नक्सल नेत्रित्व के पुरोधाओं खासकर "चारू मजुमदार और कोंडापल्ली सीतारमैया" ने सिर्फ सशस्त्र संघर्ष को ही महत्त्व दिया ,ग्वारा ने अपनी "पुस्तक चे ग्वारा" की महत्वपूर्ण प्रस्थापना में यह भी कहा की जिस स्थान पर शांतिपूर्ण विकल्प है, वहां फोको आतंकवाद की रणनीति कामयाब नहीं होगी पर ये पुरोधा यह सब नहीं समझते! 
राष्ट्र के किसानो के बीच जो असंतोष व्याप्त है उससे हताशा और निराशा का वातावरण बना हुआ है नक्सलियों से निपटने  के लिए भारतीय सरकार और कार्पोरेट जगत को अपने किसान विरोधी चरित्र का परित्याग करना होगा ,रिहाई के बदले रिहाई  नीति का एक खतरनाक पहलू है जिसके खामियाजे को सरकार को याद रखने की जरूरत है ,कानून के भी बहुत लम्बे हांथ छोटे पड़ रहे हैं ,हमारी बहुत नरम राज्य की छवि अपनी कमजोरी को खुलकर दिखा रही है और हमारा दुर्भाग्य ये है कि अलगाववाद,माओवाद,और आतंकवाद की स्थिति विस्फोटक होते जाने के बावजूद हम इस पर आम राय नहीं बना पा रहे हैं !
इस देशव्यापी मुद्दे पर भिन्न भिन्न प्रतिक्रियाएं दिखाई पड़ती हैं कुछ लोग उदासीन बनते हुए दिखाई पड़ते हैं जबकि कोई राज्य इसे अकेले समूल नष्ट करने की स्थिति में नहीं है ,आश्चर्य तो यह है कि पता  भारी भरकम शब्दावली को न जानने वाला ग्रामीण इस मुद्दे को वोट बैंक की राजनीति मानता है .