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ह्रदय तुम्हारा बंजर भूमि, कहो प्रेम मेरा .........कैसे पुष्पित हो l
हुआ नहीं द्रवित पत्थर ह्रदय,
पर जतन किये मैंने हज़ार l
हाँ मैंने रातें रोशन की हैं,
लेकर हथेलियों पर अंगार l
मेरी खरी-खरी बातों पर ,
आखिर तुम ईमां ला न सके ;
तोड़ मरोड़ मेरे सच को,
तुमने झूठ कहा हर बार l
प्रीति को तुम क्यों समझोगे, जब मति तुम्हारी......कलुषित हो l
ह्रदय तुम्हारा बंजर भूमि, कहो प्रेम मेरा ..........कैसे पुष्पित हो ll१ll
मेरी आकांक्षाओं का शिशु ,
स्नेहांचल को तरस रहा है l
बेरंग नीरस मेरा जीवन ,
नागफनी के सदृश रहा है l
कई बसंत यूँ ही हैं गुज़रे ,
झूले बिन कई निकले सावन ;
थक गए बदरिया तकते-तकते,
अब बरस रहा है कब बरस रहा है l
पर इक नज़र इधर ऐसे न की, जिसमें नेह तुम्हारा परिलक्षित हो l
ह्रदय तुम्हारा बंजर भूमि, कहो प्रेम मेरा ..........कैसे पुष्पित हो ll२ ll
मेरे कन्धे बोझिल हैं अब,
ये भार सहन नहीं होता l
हम हँसते खुश भी रहा करते,
गर वीरान चमन नहीं होता l
हम तो अबस परेशां थे ,
ऐसा ही है दस्तूर जहाँ का ;
दफ़न को जमीं नहीं मिलती,
लाशों को मयस्सर कफ़न नहीं होता l
वहाँ मैं ढूंढूं कैसे विश्वास, हर नज़र................ जहाँ सशंकित हो l
ह्रदय तुम्हारा बंजर भूमि, कहो प्रेम मेरा ..........कैसे पुष्पित हो ll३ll
-अंशुमान पाठक “प्रीतू”
हमीरपुर (उ०प्र०)
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