Friday, 6 September 2013

अध्यादेश की राजनीति


संविधान ने सरकार को यह साहस  दिया है कि विपरीत और आवश्यक परिस्थितियों में जनहित में अध्यादेश के माध्यम से विधि निर्माण किया जा सके ,परन्तु जब यह साहस विभिन्न क्षेत्रीय हितों को तुष्टिकृत  करने में दुस्साहस में परिवर्तित हो जाता है,तो इससे संविधान की प्रतिष्ठा पर ठेस लगती है.जिससे मजबूत संविधान बहुत ही कमजोर प्रतीत होने लगता है .इन दिनों खाद्य सुरक्षा विधेयक पर चर्चा जोरों पर है सरकार जल्द ही इसे संसद में पेश कर सकती है इससे पहले ही सरकार अध्यादेश के रूप में जल्दबाजी में इसे ला चुकी है जिसमे जनहित कम सरकार के निजी स्वार्थ जो वोटों की महिमा पर आधारित हैं ज्यादा है.
वैसे तो सरकार को अपने नंबरों पर पूरा भरोसा है,जिसमे  कुछ भी करके पास करा लेंगे का दृष्टिकोण साफ़ है परन्तु यदि ऐसा नहीं हो सका तो संविधान का मान मर्दन करने को सरकार पहले से ही तैयार है.
बताते चले की संविधान का अनुच्छेद 123 कहता है कि  राष्ट्रपति को उस समय अध्यादेश द्वारा विधान बनाने की शक्ति है,जब उस विषय पर तुरंत ही संसदीय अधिनिमिति बनाना संभव नहीं है,उस स्थिति में सरकार जनहित में अध्यादेश लाती है परन्तु साथ ही अध्यादेश का जीवन काल पुनः समवेत होने की तारिख से 6 सप्ताह मात्र  ही  होता है,और इसके पश्चात यदि संसद इसे पारित नहीं करती है तो वह स्वतः निष्प्रभावी हो जाता है ऐसे में सरकार के पास एक मात्र रास्ता होता है जब अध्यादेश की अवधि समाप्त हो तो उसे दुबारा प्रख्यापित कर दिया जाए,परन्तु संविधान का 123 का खंड 1 यह कहता है "उस समय को छोड़कर जब संसद के दोनों सदन सत्र में हैं यदि किसी समय राष्ट्रपति का यह समाधान है की ऐसी परिस्थितियां विद्यमान हैं,जिनके कारण तुरंत कार्यवाई करना उसके लिए आवश्यक हो गया है तो यह ऐसे अध्यादेश प्रख्यापित कर सकेगा जो उन परिस्थितियों में अपेक्षित प्रतीत हों "परन्तु संविधान में 'तुरत कार्यवाई 'की कसौटी इतनी ही है की जिन परिस्थितियों के कारण विधान आवश्यक हो गया है वे इतनी गंभीर और आसन्न हैं की विधान मंडल को आहूत करने और विधान के सामान्य प्रक्रम में विधेयक को पारित कराने में जो विलम्ब लगेगा वह सहन नहीं किया जा सकता।परन्तु इस तकनीकी  भाषा का भरपूर दुरुपयोग सरकारों ने समय समय पर खूब  किया है,इसका एक साक्षात् उदाहरण डी सी वाधवा बनाम बिहार राज्य का मामला है ,इस मामले में एक याचिका कर्ता  ने उच्चतम न्यायलय में एक तथ्य प्रस्तुत किया जिसके तहत बताया गया की बिहार में 1967 से 1981 के बीच कुल 256 अध्यादेश जारी किये गए,और विधान मंडल से बिना अनुमोदित किये बार बार जारी करके अध्यादेश को 14 वर्षों तक बनाए रखा गया ,केंद्र सरकार भी लगातार इन अध्यादेशों को मंजूरी देती गयी, तब उच्चतम न्यायलय की 5 न्यायाधीशों की पीठ ने इसकी आलोचना की और कहा की "यह विधान मंडल की विधि बनाने की शक्ति का कार्यपालिका द्वारा अपहरण है जिसे ऐसा नहीं करना चाहिए।इस शक्ति का प्रयोग असाधारण परिस्थितियों में किया जाना चाहिए,राजनैतिक उद्देश्यों से नहीं" न्यायलय ने बिहार राज्य को यह निर्देश दिया कि डी सी वाधवा को उनके शोध के लिए 10 हजार रुपये दिए जाएँ।एक दूसरा मामला कूपर बनाम भारत संघ  का जिसमे उच्चतम न्यायलय ने यह मत दिया कि राष्ट्रपति के समाधान की वास्तविकता को न्यायालयों में संभवतः इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है की वह असद्भाव पूर्ण था.इस तरह भारत के उच्चतम न्यायलय ने कई अन्य मामलों में भी इन निर्णयों की पुष्टि की है ,ए के राय बनाम भारत संघ और ए वी नचाने बनाम भारत संघ के मामले।समय समय पर विभिन्न सत्तारूढ़ दल अध्यादेश के समर्थन में और विपक्षी दल विरोध में अपनी आवाज़ बुलंद करते रहे हैं,सत्तारूढ़ दलों को न्यायालयों का इस तरीके का हस्तक्षेप अपनी सत्ता पर प्रहार लगता रहा है इसलिए समय समय पर वे न्यायालयों के हाँथ बाँधने के प्रयास करती रही हैं. एक मामला उस समय का है जब श्रीमती इंदिरा गाँधी की सरकार 38वां संविधान संशोधन कर रही थी,जिसमे उन्होंने अनुच्छेद 123 में एक खंड जोड़कर अध्यादेश निर्माण में न्यायिक हस्तक्षेप को रोकना चाहा  था परन्तु आने वाली जनता  सरकार ने इस परिवर्तन को उलट दिया।हमारे यहाँ की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को देखकर ऐसा लगता है की अध्यादेश निर्माण की प्रक्रिया का ज्यादा दिनों तक दुरुपयोग नहीं हो सकेगा क्योंकि  विभिन्न विपक्षी दल और गैर सरकारी संगठन इसका विरोध करते रहे हैं जिसके कारण सरकार को इतनी आसानी से साहस नहीं हो सकेगा यहाँ तक की हमारी लोकसभा ने भी नियम बना कर यह अपेक्षा की है कि जब कभी सरकार किसी विधेयक से अध्यादेश को प्रतिस्थापित करेगी तो ऐसे विधेयक के साथ एक कथन होगा जिसमे उन परिस्थितियों को स्पष्ट किया जाएगा जिसके कारण अध्यादेश द्वारा तुरंत विधान बनाना आवश्यक हो गया था ,इस प्रकार विभिन्न संसदीय और जन दबावों के कारण सरकार द्वारा इस शक्ति के दुरुपयोग की सम्भावना को रोका जा सकेगा।वास्तव में लोकतंत्र में महती आवश्यकता यह है की जन समुदाय पर्याप्त रूप से शिक्षित हो,ताकि वह समझ सके की कब सरकार अपने हित साध रही है,और कब जनता के हितों को साध्य बना रही है.

Sunday, 24 February 2013

नारी तुम केवल देह हो। तुम्हारी देह में रूह भी है लेकिन उसे किनारे करके रखो। मर्द तुम्हारे जिस्म को महसूस करने की आकांक्षा रखते हैं। इसलिए तुम्हारी देह चमकती रहे, दमकती रहे। तुम अपने बालों में फूल लगाओ जिससे मदमाती खुशबू आती हो। तुम अपने नाखूनों को ऐसे रंगो मानो इंद्रधनूष के सातों रंग इसमें समा गए हों। तुम वह सब कुछ करो जो मर्दों को भाता है। नारी तुम केवल देह हो। तुम उपवन हो, प्रकृति हो, समंदर की लहरें हो, नदी की कलकल धारा हो तुम वह सब कुछ हो जिसमें मर्द विचरण करना पसंद करता है। नारी, तुम्हारा फर्ज है कि उस परमेश्वर मर्द को खुश रखने के लिए अपनी देह में पुष्प, पंख, नग, सीप, हीरे, मोती और सोना जड़ लो। तुम पौधा बन जाओ। तुम छाया दो और फल दो क्योंकि मर्द यही चाहता है।

औरत, तुम्हें न जाने क्या-क्या उपमा देकर हिन्दी फिल्मों की कमाई सौ करोड़ से ज्यादा हो गई है। कोई ‘राउडी राठौर’ के लिए तुम ‘नया माल’ हो। जो अपने सलमान भाई पर्दे पर किस नहीं करते हैं उनके लिए तुम ‘तंदूर मुर्गी’ हो। कल मिलकर आज भूल गई तो दगाबाज हो। उस मर्द के दिमाग में जो कुछ भी आएगा तुम्हें कहेगा। और तुम उसी में खुश रहोगी।

तुम उन मर्दों को खुश रखने में ही खुश रहोगी, गर्व करोगी। सच में नारी तुम केवल देह हो। सिनेमा तुम्हें बेचना जानता है, कला के और माध्यम भी तुम्हें बड़ी चालाकी से बेचना जानते हैं। कोई साहिर लुधियानवी आहत होकर रूह से कह बैठता है, ‘औरतों ने मर्दों को जन्म दिया और मर्दों ने उसे बाजार बना दिया।‘ जब सिनेमाई पर्दे पर तुम इठलाती और इतराती हो तो मर्दों की हिंसक निगाहें तुम्हारी कीमत पर विचार करती हैं। तुम्हारी खुशी बड़ी क्षणिक होती है कि तुम कलाकार हो। जब कला बाजार में खड़ी है, उस बाजार में तुम्हारी कलाकारी नहीं कलाबाजी देखी जाती है। कोई फिल्मकार महेश भट्ट ‘अर्थ’ ‘सारांश’ और ‘डैडी’ बनाकर उस बाजार के अनुशासन में इतना पारंगत हो जाता है कि वह एक नए ट्रेंड का जनक बन जाता है।

नारी तुमसे कहा जाता है कि कोई पत्रकार पूछे कि इस फिल्म में आप कितना दिखाएंगी तो आप कहना कि जितनी स्क्रिप्ट की डिमांड होगी। एक बेचारे प्रेमचंद थे जो आने वाले वक्त को नहीं पहचान पाए। वह यह कहते-कहते मर गए कि साहित्य महफिल की तवायफ नहीं है कि डिमांड पर काम करे। लेकिन नारी तुमसे कलाकारी नहीं कलाबाजी की डिमांड की जाएगी, कला के नाम पर, कला के लिए और कला के द्वारा कि आपको इस फिल्म में इतना दिखाना है। खुद को ‘माल’ से लेकर ‘तन्दूर मुर्गी’ तक बताना है। ‘मुर्गी’ किसी की मां, बहन नहीं होती है। उसे हर कोई उसी नजरिए से देखता है। नारी तुमसे कहा जाएगा कि ट्रेंड को बदल डालो। एक 12 साल का किशोर भी तुम्हें अपनी दीवार पर पोस्टर में लगाकर ‘तंदूर मुर्गी’ की तरह ललचाई नजरों से देखता रहेगा।

इस नियति की नियत को स्थापित करने के लिए कई तर्क दिए जाएंगे। कोई अनुराग कश्यप कहेगा कि दर्शकों को जो पसंद है वही वाजिब है। एक बच्चा जब बड़ा होता है तो उसकी पसंद को कौन निर्धारित करता है। उसे कौन बताएगा कि क्या अच्छा है, क्या बुरा। उसे समझाने में वक्त ही कहां दिया जाता है कि मनोरंजन क्या होता है? उसे कौन समझाए कि किसी प्रियंका चोपड़ा में जिस्म के अलावा भी कुछ है। किसी किशोर को कौन समझाए कि नंदिता दास को रेप पीड़िता का रोल ही क्यों दिया जाता है।

उसे किसी स्कूल में क्या यह शिक्षा दी जाती है कि सिनेमा केवल सेक्स को उकसाने का माध्यम नहीं होता है? उसे कौन मां-बाप कला बोध, साहित्य बोध, इतिहास बोध का ज्ञान देता है। वह भी उसी भीड़ में शामिल होगा। फिर कोई महेश भट्ट के बाद अनुराग कश्यप बताएगा कि जो लोग पसंद करते हैं उसे हम दिखाएंगे। वर्तमान समय में पूरी पीढ़ी वैसी तैयार की जा रही है जिसमें विवेक के आधार पर चीजों का खारिज करने का माद्दा नहीं है। इस पीढ़ी को नागरिक नहीं उपभोक्ता बनाया दिया गया है।

बाजार उपभोक्ताओं से चलता है न कि नागरिकों से। इस बाजार में औरतों को हर तरीके से बेचा जा रहा है। अभी 9 जनवरी आने वाला है। इसी दिन 1908 में पेरिस में नारियों को अपने वजूद का अहसास कराने वाली विश्वविख्यात लेखिका सिमोन द बोउवार का जन्म हुआ था।

1949 में जब इनकी किताब ‘द सेकेंड सेक्स’ आई तो पूरी दुनिया में खलबली मच गई थी। आज भी वह किताब उतना ही महत्वपूर्ण है। बीसवीं सदी में सिमोन ने पितृसत्तात्मक समाज को कायदे से नंगा किया था। उन्होंने बतया कि किस तरह मर्दों ने स्त्रियों की पोशाक से लेकर रहन-सहन तक आपने भोगने के हिसाब से निर्धारित किया। सिमोन कहती हैं, ‘स्त्रियों की पोशाक और सज्जा के उपकरण भी इस तरह बनाए जाते हैं, जिससे वे विशेष काम न कर सकें। चीन की स्त्रियों के प्रारंभ से ही पांव बंधे रहते हैं, जिससे उन्हें चलने में कठिनाई होती है। हॉलिवुड की अभिनेत्रियों के नाखूनों पर इतनी गहरी पॉलिश रहती है कि वे हाथ से काम करना पसंद नहीं करतीं। उन्हें ‘भय’ रहता है पॉलिश उतर जाने का। ऊंची एड़ी के जूते पहनने और कमर एवं उसके आस-पास के हिस्से को आवरणों से छिपाए रखने के कारण वे अंग विकसित नहीं हो पाते। उनमें घुमाव और वक्रता नहीं आती। वे निष्क्रिय पड़ जाते हैं। पुरुष उसी स्त्री को अपनी संपत्ति बनाना चाहते हैं।‘

सिमोन के मुताबिक औरत मर्दों के लिए एक खेल है। वह इस तथ्य को नीत्शे के उस कथन से साबित करती हैं। नीत्शे ने कहा है कि योद्धा हमेशा खेल और संकट को पसंद करता है, इसलिए वह नारी को पसंद करता है। नारी सबसे खतरनाक खेल है। जिस पुरुष को खेल और संकट प्रिय है उसे वह स्त्री-योद्धा पसंद आएगी जिसे जीतने की उसे आशा रहती है। वह हृदय से यह चाहता है कि उसका संघर्ष उसके लिए तो खिलवाड़ रहे, पर नारी के लिए भाग्य परीक्षा रहे। पुरुष चाहे उद्धारक के रूप में हो या विजेता के, वह अपनी सच्ची विजय तभी समझता है, जब स्त्री उसे अपना सौभाग्य मानकर स्वीकार करे।

सिमोन की किताब ‘द सेकेंड सेक्स’ उस हर स्त्री को और मर्द को पढ़ने की जरूरत है जो उपभोग को ही आधुनिकता का पर्याय मान बैठे हैं। खास कर उन मर्दों को ज्यादा जरूरी है जो इस किताब की हर लाइन पढ़ते हुए नंगा होता है।

- रजनीश कुमार (Navbharat Times)

Friday, 15 February 2013

नवीन कुकुरमुत्ता कवियों के खिलाफ जिहाद

धीरज, धर्म, मित्र और नारी में सिर्फ धीरज ही बचा था मेरे पास आपत्तिकाल में परखने के लिए, जबकि बाकी तीन तो स्वयं ही आपत्तिकाल हैं... लेकिन फेसबुक पर साहित्यिक भूकंप के साथ कवित्त की सुनामी भी चल रही है... लिहाजा मेरा धीरज भी आखिर जबाब दे ही गया... और मैंने भी कंप्यूटर मानिटर के कटोरे में तमाम शब्दों का कचूमर बना डाला और फेसबुक पर आपके लिए वसंत पंचमी पर पीत-कवित्त परोस रहा हूँ... बूता हो तो झेलिये वरना लाइक करके कोई कायदे की पोस्ट पढ़िए...

अब मैं भी सारे रसों में कवितायें घिसुंगा... श्रंगार रस, वीर रस, रौद्र रस, प्रेम रस, वीभत्स रस, हास्य रस, निंदा रस, गन्ने का रस समेत अनंत रसों की काकटेल कवितायें पेश करूंगा... ज्ञान को पीठ जैसे पुरस्कारों को निगोशिएट करने के लिए छायावादी की बजाय सीधे-सीधे अंधेरवादी कवितायें सकेलुंगा...

मेरा बस चला तो बेडशीट, कुशन कवर, हैंकी आदि के साथ-साथ टायलेट पेपर तक में कवितायें छपवा दूं, ताकि जन-जन हरवक्त कविताओं का भरपूर सेवन करे... पोलियो के टीके की तरह पोएटरी हारमोन के भी टीके बच्चों को लगाने का अभियान चले ताकि भीषण कवियों की पौध तैयार रहे... देश के दुश्मनों और आतंकवादियों से निपटने के लिए सीमा पर एक बटालियन फ़ौज से कहीं ज्यादा एक अदद मौसमी कवि कारगर होगा... फिलहाल ये शब्दों का कचूमर झेलिये... सभी मेरे जैसे घोंघा वसंतों को हैप्पी वसन्ता... ईश्वर आपको शक्ति दे, मेरी हार्दिक शुभकामनाएं आपके साथ हैं...
धीरज, धर्म, मित्र और नारी में सिर्फ धीरज ही बचा था मेरे पास आपत्तिकाल में परखने के लिए, जबकि बाकी तीन तो स्वयं ही आपत्तिकाल हैं... लेकिन फेसबुक पर साहित्यिक भूकंप के साथ कवित्त की सुनामी भी चल रही है... लिहाजा मेरा धीरज भी आखिर जबाब दे ही गया... और मैंने भी कंप्यूटर मानिटर के कटोरे में तमाम शब्दों का कचूमर बना डाला और फेसबुक पर आपके लिए वसंत पंचमी पर पीत-कवित्त परोस रहा हूँ... बूता हो तो झेलिये वरना लाइक करके कोई कायदे की पोस्ट पढ़िए...

अब मैं भी सारे रसों में कवितायें घिसुंगा... श्रंगार रस, वीर रस, रौद्र रस, प्रेम रस, वीभत्स रस, हास्य रस, निंदा रस, गन्ने का रस समेत अनंत रसों की काकटेल कवितायें पेश करूंगा... ज्ञान को पीठ जैसे पुरस्कारों को निगोशिएट करने के लिए छायावादी की बजाय सीधे-सीधे अंधेरवादी कवितायें सकेलुंगा... 

मेरा बस चला तो बेडशीट, कुशन कवर, हैंकी आदि के साथ-साथ टायलेट पेपर तक में कवितायें छपवा दूं, ताकि जन-जन हरवक्त कविताओं का भरपूर सेवन करे... पोलियो के टीके की तरह पोएटरी हारमोन के भी टीके बच्चों को लगाने का अभियान चले ताकि भीषण कवियों की पौध तैयार रहे... देश के दुश्मनों और आतंकवादियों से निपटने के लिए सीमा पर एक बटालियन फ़ौज से कहीं ज्यादा एक अदद मौसमी कवि कारगर होगा... फिलहाल ये शब्दों का कचूमर झेलिये... सभी मेरे जैसे घोंघा वसंतों को हैप्पी वसन्ता... ईश्वर आपको शक्ति दे, मेरी हार्दिक शुभकामनाएं आपके साथ हैं...

Friday, 11 January 2013

.सामाजिक शिक्षक की आधुनिक पौध एक खतरा

समाज के विज्ञान को जानने के लिए आइये सामाजिक विज्ञान का अद्धययन  करते हैं !विज्ञान (वास्तविक रूप में )वाही है जो उत्पादक तथा सकारात्मक हो,विनाश का विज्ञान समाज एवं लोकहित से परे है .परन्तु हाल के दिनों में हमने समाज में घोषित सामाजिक सिक्षा के शिखर संस्थानों का सर्वाधिक विकृत रूप देखा है ,ये संसथान जिन्हें समाज में निहित बुराइयों पर शोध व् उनके समाधान की जिम्मेदारी सौपी गई थी परन्तु इन संस्थानों ने  अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई !बल्कि ये संसथान एक ऐसे संगठन  के रूप में उभरे है जिन्होंनेसंगठित रूप से ऐसे उत्पादों को जन्म दिया जो समाज में अलगाववाद ,बिखराव ,वैमनस्य को बढ़ावा दिया और देते जा रहे हैं !जबकि इनकी जिम्मेदारी अन्ध्विश्वाशों,पर चोट मारना था,पर उलटे ये विश्वाशों पर चोट मरते हुए दिखाई पड़ते हैं मै नहीं जानती हूँ की कौन से चश्मे"से ग्रस्त शिक्षक इन्हें शिक्षा देते हैं और कौन सा चश्मा लगाकर ये समाज में निकलते हैं ,इन्हें पहचानना बहुत ही आसान है क्योंकि क्योंकि ये सभी समाज को तोड़ने की बात करते हैं इनकी हर एक बात सामजिक ढांचे को तोड़ने की ही होती है।,ये शिक्षक और इनके शिष्य कभी किसी ऐसी बात का समर्थन नही कर सकते जो समाज में एकता को बढ़ावा दे !
जब मैं भारत में आधुनिक विचारक राजा  राम मोहन रॉय को याद करती हूँ तो आज के इन उत्पादों और इनके उत्पादनकर्ताओं की विचार क्षमता पर पूर्ण संदेह व्याप्त हो जाता है !मोहन रॉय देश की सबसे बड़ी कुरीति सटी प्रथा का अंत किया पर किसी धर्म को गाली देते नहीं दिखाई दिए
मुझे आश्चर्य होता है की यदि आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तब तो वे सामाजिक विज्ञान के चिन्तक थे ही नहीं ?न इश्वर को गाली ,न अलगाववाद न विखराव न ही राष्ट्र की अवधारणा पर चोट न ही व्यक्तिवाद के लिए राष्ट्रवाद पर चोट और बिना इन सभी पर चोट किये बिना उन्होंने सामाजिक विज्ञान की इंजीनियरिंग कर डाली,,उद्देश्य क्योंकि उनका उद्देश्य अन्ध्विश्वाशों को हटाना थाकिसी को आहात करना नहीं था बल्कि वंचितों की सहायता करनी थी और राष्ट्र में सामाजिक एकता और सौहार्द्र को बनाये रखते हुए ,यही काम अन्य समाज सुधारकों ने भी किया ,दयानंद सरस्वती,स्वामी विवेकानंद,अरविन्द घोष,इत्यादि ने,,
पर आज के सामजिक विज्ञान के शिक्षक और उनके शिष्य ,और उन्हें सर पर चढ़ा देने वाले कुछ पत्रकार समाज सुधार की शुरुवात ही आक्रामकता से करते हैं फिर अतिवाद पर आते हुए गाली गलौच से गुजरते हुए राष्ट्र के अस्तित्व को ही चुनौती देते हैं ..मई सोचती हूँ की क्या यही बौद्धिकता है?
मेरा उत्तर भी मुझे मिलता है की यह सामाजिक व्यभिचार है बौद्धिक दिवालियापन है बस और कुछ नहीं !
परन्तु सच्चाई यह है की ये सामाजिक शिक्षक न तो समाज के जुड़ने से कोई वास्ता रखते हैं न ही समाज के टूटने से कोई वास्ता रखते हैं हाँ ये स्वतंत्रता की भौंडी मानसिकता के प्रचारक अवश्य होते हैं ये निरर्थक और अबूझ कला के प्रेमी होते हैं समाजवाद का जूनून मात्र इसलिए होता है की उभरते नए मीडिया के माध्यम से इतने बड़े देश की इतनी बड़ी जनसँख्या में से कोई भी मूर्ख इने सुनेगा तो इन्हें मानसिक शांति मिलेगी और थोडा मोड़ा प्रचार और नाम ये जिस बौद्धिक मल का स्राव कर रहें हैं निश्चित रूप से इसका सफाया आने वाले समय में मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है क्योंकि ये शिक्षक जैसी महत्वपूर्ण संस्था से सम्बंधित हैं ...हम क्या करेंगे ऐसे शिक्षकों का जो राष्ट्र की सबसे अमूल धरोहर युवाओं को भ्रमित कर रहे हो,हम क्या करेंगे ऐसे शिक्षकों का जो सिर्फ देश में कलह मचाने के लिए पीढियां तैयार कर रहा हो और उसे आधुनिकता की पौध मनाता हो ,हमें नहीं चाहिए ऐसे शिक्षक जो नवाचार के नाम पर व्यभिचार कर रहा हो देश को ऐसी सोच के शिक्षकों को अपदस्थ करना चाहिए ,ऐसे गुरुओं की खेती से कौन सा पौष्टिक आहार देश को प्राप्त होगा इस पर विचार होना ही चाहिए ,ऐसी पौध बड़े वृक्ष के रूप में देश को दुर्दिन ही दिखाएगी जिसके आसार दृष्टिगत होते हैं यदा कद।।।।पर आने वाले समय में ये पौध जंगल का रूप धारण कर चुकी होगी और देश की भूमि को बंजर होने कोई नहीं रोक पायेगा।।।जय हो भारत .