Sunday, 30 December 2012

एक बहुत ही संमृद्ध कविता ....अंशुमन जी द्वारा

प्रेम मेरा .........कैसे पुष्पित हो ...अंशुमान पाठक "प्रीतू"
---------------------------------------------------------
ह्रदय तुम्हारा बंजर भूमि, कहो प्रेम मेरा .........कैसे पुष्पित हो l

हुआ नहीं द्रवित पत्थर ह्रदय,
पर जतन किये मैंने हज़ार l
हाँ मैंने रातें रोशन की हैं,
लेकर हथेलियों पर अंगार l
मेरी खरी-खरी बातों पर ,
आखिर तुम ईमां ला न सके ;
तोड़ मरोड़ मेरे सच को,
तुमने झूठ कहा हर बार l
प्रीति को तुम क्यों समझोगे, जब मति तुम्हारी......कलुषित हो l
ह्रदय तुम्हारा बंजर भूमि, कहो प्रेम मेरा ..........कैसे पुष्पित हो ll१ll


मेरी आकांक्षाओं का शिशु ,
स्नेहांचल को तरस रहा है l
बेरंग नीरस मेरा जीवन ,
नागफनी के सदृश रहा है l
कई बसंत यूँ ही हैं गुज़रे ,
झूले बिन कई निकले सावन ;
थक गए बदरिया तकते-तकते,
अब बरस रहा है कब बरस रहा है l
पर इक नज़र इधर ऐसे न की, जिसमें नेह तुम्हारा परिलक्षित हो l
ह्रदय तुम्हारा बंजर भूमि, कहो प्रेम मेरा ..........कैसे पुष्पित हो ll२ ll

मेरे कन्धे बोझिल हैं अब,
ये भार सहन नहीं होता l
हम हँसते खुश भी रहा करते,
गर वीरान चमन नहीं होता l
हम तो अबस परेशां थे ,
ऐसा ही है दस्तूर जहाँ का ;
दफ़न को जमीं नहीं मिलती,
लाशों को मयस्सर कफ़न नहीं होता l
वहाँ मैं ढूंढूं कैसे विश्वास, हर नज़र................ जहाँ सशंकित हो l
ह्रदय तुम्हारा बंजर भूमि, कहो प्रेम मेरा ..........कैसे पुष्पित हो ll३ll

-अंशुमान पाठक “प्रीतू”
हमीरपुर (उ०प्र०)

Thursday, 20 December 2012

महिला सुरक्षा में "जीरो टोलरेंस" की नीति

शुरुवात वास्तव में दिल्ली रेप केस से नहीं होती यह तो वास्तव में हर प्रदेश और समाज की अन्दर तक समां जाने वाली बुराइयों में से एक है .यह रेप इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो गया की यह घट्ना  राजधानी दिल्ली में तब हुई जब संसद का सत्र चल रहा था।चर्चा का मौका था तो खूब चर्चा हुई आंसू बहाए गए ,क़ानून  लाने की वकालत की गयी पर इन सबके बीच वास्तविकता कहीं खो सी गयी वह यह की जो समाज आज उठ खड़ा हुआ दिख रहा है उसका आधार ही खोखला है।पूरी तरह जड़ हमारे समाज में जब तक ऐसी वीभत्स घटनाएँ  न घटें  तब तक अगर उठता नहीं है तो मैं तो इसे मरा  हुआ ही मानती हूँ।
वैसे तो यह मौका विरोध करने का और इस विरोध में सुर से सुर मिलाने का है पर अगर बात यहीं तक रह जायेगी तो बेमानी हो जायेगा सब कुछ .क्यूँ न हम समस्या की जड़ की ओर चलें जो की जगह जगह बिखरी है और अलग अलग तरह से प्रभावित हो रही है .
पहला मुद्दा और कारण तो यह है की महिलाओं में धैर्य बहुत है और यह धैर्य अब "डर" में बदल गया है और अपमान सहने की आदत सी हो गयी है "जीरो टोलरेंस" की जो बात उनमे होनी चाहिए वो छू कर भी नहीं गयी है .बस में छेड़छाड़ आम बात है उनके लिए,कोई भद्दे कमेन्ट करके निकल जाता है तो वो या तो नजरंदाज कर देती हैं या "सामाजिक डर" उन्हें खाए जाता है।और "चलता है" दृष्टिकोण उनके लिए घातक साबित हो रहा है .मुझे नहीं समझ आता है क्यूँ महिलायें किसी की छेड़छाड़ का तुरंत बेहद कठोर जवाब नहीं देती अपने मुख से या फिर हाँथ पैर चलाकर उन्हें तुरंत घोर विरोध करना होगा वर्ना परिणाम आगे घातक  ही रहेंगे।तुरंत प्रशासन की मदद लेनी चाहिए जनता में शोर मचाना चाहिए और विभिन्न महिला संगठनो के साथ लगातार संपर्क में रहना चाहिए ,किसी दूसरे लड़की के साथ होती हुई छेड़छाड़ का वैसे ही विरोध करना होगा जैसे की यह छेड़छाड़ स्वयं के ही साथ हो रही है .
दूसरा कारन थोडा अजीब लगता है पर सच तो यही है की शराब की धूर्तता बहुत से संगीन अपराधों के पीछे मजबूत हांथों का काम करती है।चंद  "शरीफ" दारूखोरों की वजह से शराब को वैद्यता मिली हुई है .जबकि 90 फ़ीसदी शराबी समाज में विभिन्न अपराधों के पीछे होते हैं।अभी हाल के दिनों में जितने भी रेप केस पाए गए है उनमे से 95 फ़ीसदी शराब के नशे में किये गए हैं।अपनी बेटी बहन के साथ किये गए लगभग सभी रेप केसों में शराब के अभिन्न  योगदान को हमें याद रखना होगा।महिलाओं को समझना होगा की यदि उनका  पुरुष मित्र   शराब का सेवन करता है तो वे घोर प्रतिरोध दर्शायें वर्ना उनका ये मित्र किसी न किसी के लिए मुसीबत जरूर बन सकता है  शराब को  सिर्फ आय स्रोत के रूप में सरकार लेती है पर इसके सामाजिक और अन्तर्निहित आर्थिक नुकसानों के बारे में समाज में "चिन्तक" वर्ग सक्रिय नहीं होता।कहने की बात नहीं है कारन साफ़ है की शायद ही   कोई आधुनिक सामाजिक चिन्तक या वरिष्ठ मीडियाकर्मी हो जो शराब का सेवन न करता हो और सभी अपने अपने स्तर  से महिलाओं का शोषण करते दिखाई पड़ते है .
आज कल दो चार दिनों से जो माहौल बना हुआ है चाहे वो फेसबुक में हो या अन्य मीडिया माध्यमो में ऐसा लग रहा है की पुरुष वर्ग वास्तव में चिंतित है पर असलियत इतर है इन सब से जितने भी ये पुरुष हो हल्ला मच रहे हैं लगभग सभी अपने अपने स्तर से शोषण की विधा में महारथी हैं .रेप सिर्फ वास्तविक सेक्स सम्बन्ध ही नहीं है ये अपनी व्यापकता में हर उस बात को समेटे है जिसे पुरुष "मौजमस्ती" का नाम देता है ,लड़कियों को घूर के देखना ,भद्दे कमेन्ट करना,पीछा करना ,अनावश्यक छूने  का प्रयास ,पब्लिक प्लेस में भद्दी भद्दी गलियों का प्रयोग ,सामने भद्दे गीत गुनगुनाना  आदि ये सभी रेप की ओर ही जाते हुए कदम हैं इनमे से कुछ कदम सिसक जाते हैं तो कुछ आगे बढ़कर ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं।
एक और कारन है जिसकी चर्चा मैं यहाँ करना चाहूंगी  भले ही मुझे संकीर्णता की माला पहना दी जाए वो ये की अश्लील विज्ञापन और फ़िल्मी गीत ,वस्त्र  इत्यादि का भी योगदान कुछ कम नहीं .मेरा यह ठोस रूप से मानना है की यदि आप किसी  उबड़ खाबड़ जमीन में खेल खेलना चाहते हैं तो पहले उसे इस काबिल बनाना होगा की खेलते वक़्त आपको चोट न लगे आप यह नहीं कह सकते की भाई मैं तो खेलूंगा और जब खेलते वक़्त गंभीर चोट लगे तो जिम्मेदार प्रशासन को ठहराएं।किसी भी किस्म के वस्त्र पहनना कोई पाप नहीं पर हम जो नयी चीज समाज में दिखाना चाहते हैं  क्या समाज उसके लिए तैयार है ? और यदि नहीं तो हम कितने स्वार्थी है की समाज को बिना तैयार किये हुए ही सिर्फ अपने "मूल अधिकारों" का प्रयोग करते हुए कुछ भी उन पर थोप  देते हैं जब की हमारा " मूल कर्तव्य" हम कहीं भुला देते हैं .जिस प्रकार कोई 3D फिल्म देखने से पहले वो चश्मा लगाना जरूरी है जिससे आप  उसका आनंद  ले सकें उसी प्रकार अपने समाज में कोई नया कल्चर दिखाने या जोड़ने से पहले हमें जन मानस को उसके लिए तैयार करना होगा वरना उसका प्रभाव क्या होगा यह तो जनता ही तय करेगी।क्या कभी कोई फिल्मकार का या अदाकार ने  कभी समाज को उस बात के लिए तैयार करने की कोशिश की है जिसे वो हमें परोसना चाहते हैं? .और अगर फिर भी कोई उबड़ खाबड़ पिच पर बैटिंग की जिद करता है तो अपने मुह तोड़ने लिए उसे तैयार रहना होगा।इसलिए यह भी समाज में मानसिक वाचालता का कारन बन जाता है जबकि वास्तव में ये है नहीं....
हमें चाहिए की हम मिलकर हर लिहाज से इससे लड़ाई की योजना बनायें और लड़ने के लिए तैयार हों ."दामिनी केस" भुलाया नहीं जाना चाहिए और ये आन्दोलन जो  पुरे देश में हमारी महिलायें कर रही है जो उत्तेजना है उसे सही और सकरात्मक दिशा  देनी होगी ."जीरो टोलरेंस" का सिद्धांत अपनाना होगा।और यदि पुलिस प्रशासन हमारी मदद को तैयार नहो होता तो प्रशासन के खिलाफ भी आवाज बुलंद करनी होगी .अपने सम्मान की रक्षा उर प्रत्येक महिला के सम्मान की रक्षा का दायित्व हम पर है न हम खुद पर कोई अन्याय सहें  और न ही किसी को सहने दें।घटना चाहे देश के किसी भी कोने में हो उसे उतनी ही तवज्जो देनी होगी ..प्रत्येक गाँव स्तर  पर "रेप विरोधी समिति" को वैधानिक मान्यता देनी होगी और ऐसी समिति यदि किसी भी पुरुष के खिलाफ किसी महिला की शिकायत को लेकर पहुंचे तो उनकी "प्राथमिक सूचना रिपोर्ट" लिखने की बाध्यता पुलिस को होनी चाहिए .अगर ऐसा होता है तो धीरे धीरे लोकल प्रशासन पर महिला मुद्दों को लेकर संवेदनशीलता बढ़ेगी और पुलिस जो दबंगों की वजह से से रिपोर्ट नहीं लिखती है वो कानूनी रूप से बाध्य होगी।समिति की अनुसंशा  इसलिए क्यूँ की अकेली महिला हो सकता है अपने को कमजोर समझे और हो सकता है उसे डराया धमकाया जा रहा हो ऐसी स्थिति में समिति का सहारा उसे मजबूती प्रदान करेगा और प्रशासन को जवाबदेह बनाएगा।यद्यपि सरकार शायद ही इसे माने पर इस दिशा में विचार जरूरी है। 

Wednesday, 12 December 2012

90 प्रतिशत जनता क्या सचमुच मूर्ख है?

पिछले दिनों श्री मार्कंडेय काटजू को लीगल नोटिस भेजी गई थी कुछ लॉ के छात्रों द्वारा की उन्होंने यह कह कर आम जनता का अपमान किया है की देश की 90 प्रतिशत जनता बेवकूफ है ,,मैंने पेपर में पढ़ा तो सोचने लगी की काटजू सर कैसे इस बात को सिद्ध कर पाएंगे क्या कोई सॉलिड पैमाना बना है मूर्खों की मूर्खता मापने का?कोर्ट तो प्रमाण मांगता है ?तो मैंने सोचा की इस बात को सिद्ध करने के लिए कोर्ट में ही कुछ प्रैक्टिस कराइ जाये तो उचित होगा और न्यायाधीश को साक्षात् प्रमाण उसी वक़्त मिल सकते हैं क्योंकि मुझे तो पूरा भरोसा है की काटजू सर बिलकुल सही कह रहे है
वैसे ये 90 फ़ीसदी का पैमाना लगभग हर जगह ठीक बैठता है अब पत्रकारों को ही ले लीजिये 90 फ़ीसदी पत्रकार एक ही राग अलापते हैं नवीनता के और बुद्धिमत्ता के पत्रकारों में दुर्लभ उदाहरण हैं।लगभग 90 फ़ीसदी पत्रकार किसी  न किसी राजनैतिक दल का कबाब उड़ा रहे हैं।लगभग यही प्रतिशत पत्रकारों का 90 फ़ीसदी समय सरकार को गली गलौज में गुजरता है यही प्रतिशत खास धर्म के तुष्टिकरण में अपना समय गुजारता है।ये बात तो पत्रकारों की हो गयी अब "चिन्तक" आते हैं दुसरे पायदान पर ये ऐसा महारथी वर्ग है जिसकी बौद्धिकता का पैमाना उनके अन्दर "हिन्दू धरम विरोधी" भावना पर निर्भर है।इनकी तेजस्विता सिर्फ इस पर निर्भर है की वो हिन्दू धर्म को अत्यधिक अपशब्द बोल सकें।
इन्ही बौद्धिक चिंतकों में लगभग 90 फीसदी समाज सेवी है (भले ही समाज की 90 फीसदी सेवा न हो प् रही हो ) और इनका पैमाना भी कुछ खास जगहों पर केन्द्रित है जैसे कश्मीर पकिस्तान को दे दिया जाये मुस्लिमों को मनचाहा आरक्षण दलितों को मनचाही छूट यहाँ तक भी ठीक था पर अगर ये ब्राह्मणों को गली देना भूले तो इनकी बौद्धिकता ,बौद्धिक समाज में मिटटी में मिला दी जाती है इसका ख्याल इन 90 फीसदी लोगों को जरूर रहता है !
एक नवीन बौद्धिक वर्ग उभर रहा है या ये कहें की खुद को उभरे दे रहा है ये हैं "दलित चिन्तक"....काश ये दलित चिंतन आंबेडकर से शुरू हुआ होता तब तक तो फिर भी शुभ था पर इस चिंतन का शुरूआती स्तम्भ "दलित की बेटी" सुश्री बहन मायावती से शुरू होता है जो की माया से मोह छोड़ ही नहीं पाई आगे चलकर कई दलित चिन्तक हुए अच्छी अंग्रेजी जानी अच्छे कपडे पहने और शायद आरक्षण के कारण अच्छी सिक्षा भी ली लेकिन मुह हमेशा गालियों से भरा ,अनावश्यक उत्तेजना इस बात को लेकर की सभी ब्राह्मण इनकी दशा के लिए जिम्मेदार है इनमे से कोई भी तार्किक बात करते हुए आपको मिल जायेगा पर आपके तर्क देने पर ये आपको भद्दी बैटन से नवाज देंगे इनका तो  प्रतिशत शायद 99 हो !
अब एक और वर्ग जो इतिहासकारों से सम्बद्ध है जिनके घटिया इतिहास बोध के कारण लगभग 90 प्रतिशत मूर्ख प्रतिवर्ष पैदा हो रहे हैं और इन इतिहासकारों की और इनके उत्पादों की फ़ौज का आंकलन यदि जे।एन।यु,जैसे संस्थानों में जाकर करें तो प्रतिशत 95 भी हो सकता है।
राजनेताओं के बारे में प्रतिशत और उसकी व्याख्या करना ही बेकार है ये सबसे ज्यादा चालाक समझे जाने वाला वर्ग सर्वाधिक आसानी से समझा जा चूका है
अब एक चर्चा उन मूर्खों की हो जाये जो अतिवादी है इनका कोई धर्म नहीं है इनको मै "राष्ट्रिय चिंता "मानती हूँ वैसे तो इसमें कोई विशेष वर्ग नहीं है पर उल्लिखित सभी वर्गों के लगभग 90 फीसदी लोग अतिवादिता का रूप धारण कर चुके हैं 1
वैसे तो लगभग सभी ग्रामीण मजदूर और किसान वर्ग परेशानियों से जूझ रहा है पर इनमे से भी 90 फीसदी लोग बिभिन्न मजदूर एवं किसान संगठनो के जाल में फास चुके हैं अपना काम और समय बर्बाद करके इन संगठनो की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ रहे हैं !
तथाकथित समाजसेवियों से समाज को  दूरगामी हानियों के लिए तैयार रहना होगा  समाज के ये लोग भोले भले या कहे बेवकूफ लोगों को "अधिकार"जैसी खोखली बातों से बहला कर "कर्तव्यों "से दूर कर रहे है ,हर जगह बस लुभाने मात्र के लिए 90 फीसदी समाज सेवी अधिकारों का ढिंढोरा पीट करके उठान करने के बजे घृणा और विद्वेष फैला रहे हैं ,मजे की बात तो ये है की 90 फीसदी लोग इसे समझ हो नहीं प् रहे हैं और यही कारण है की अरविन्द केजरीवाल जैसे लोग अपना राजनैतिक लाभ साध रहे हैं
धर्म गुरु तो वहशी हो चुके हैं 90 फीसदी धर्मगुरु परमात्मा के नाम पर काले धंधे चला रहे हैं ,जनता से धन उगाह रहे हैं और अपने भोग विलास में खर्च कर रहे हैं सैकड़ों सालो से इन धर्मगुरुओं ने ही अकेले सिद्ध किया है की 90 फीसदी जनता महामूर्ख है .......
काटजू सर ने तो सिर्फ सार को ही सामने रखा है अब कोई अदालत जाये या चौराहे पर खड़े होकर शोर मचाये यह सत्य तो बदल नहीं सकता इन आने वाले कुछ वर्षों तक ....