Monday, 26 November 2012

लेओ भइय्या गई भैंस पानी में... जनता, भारतीय जनता, समाजवादी, बहुजन, सर्वजन, किसान-मजदूर, जनशक्ति, लोक जनशक्ति, कौमी एकता, समता, अपना दल आदि आदि ब्रांड के झुनझुने तो पहले से ही बाल-सुलभ जनता का दिल बहलाने-फुसलाने के लिए झन-झन-झन-झन बज रहे थे...

अब अरविन्द दउव्वा भी आम जनता के लिए नई पिपिहिरी ले आए... यह पिपिहिरी भी शुरू में तो बढ़िया बजेगी, जनता बजा-बजाकर खूब मस्त रहेगी, झूमेगी लेकिन फिर कुछ सालों बाद सिर्फ कान फाड़ेगी... आज़ादी के पहले से लेकर आज़ादी के बाद तक आम जनता को लौकिक सुख दिलाने हेतु अनगिनत पार्टियाँ और दल बने लेकिन इन दलों के सर्कस में पिसती आम जनता के आंसुओं से ज्यादातर दल दलदल बन गए... आज इन दलों के दलदल में समूचा देश फंसकर गर्त में जा रहा है...
आम जनता को तो सूखी रोटी मिल जाये वही बहुत है, पार्टी तो नेताओं की ही होती है...

अरविन्द जी, हार्दिक बधाई और 126 करोड़ शुभकामनायें... लेकिन संसदीय चुनाव में 542 उजले लेकिन जिताऊ प्रत्याशी ढूंढना किसी बजबजाते नाले से चवन्नी ढूँढने के बराबर का ही काम है... लगे रहो अरविन्द भाई... खुदा हाफ़िज़...

Tuesday, 20 November 2012

 विज्ञानमय: शिक्षा और दृष्टिकोण 

गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर ने अपनी एक कृति में  कहा था "जहाँ तर्क की स्पष्ट धरा  बुराइयों के दलदल में दिग्भ्रमित न हो ,जहाँ सतत प्रखर हो रहे विचार और कार्य की और हमारा मन उन्मुख हो ,परमपिता से मेरी प्रार्थना है की वे ऐसी आजादी से परिपूर्ण स्वर्ग में मेरे देश को उदित करें!"
भारतीय साहित्य में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का यह छोटा पर अद्भुत प्रसंग है !
हमारे भारतीय ग्रन्थ,वांग्मय जैसे महाभारत और उपनिषद में चर्चा परिचर्चा ,बहसों विवादों,प्रश्नों तथा संवादों से भरे हैं!दरअसल चर्चा ,बहस और विश्लेषण वैज्ञानिक दृष्टिकोण के ही अभिन्न अंग हैं ,विज्ञानं सत्य का उद्घाटन करता है और प्रकृति के छिपे रहस्यों से पर्दा उठता है ,परन्तु प्राकृतिक रहस्य को समझना और उसके रहस्यों के विषय पर एक व्यक्ति के मन में उठी जिज्ञासाओं को पूर्ववर्ती अवधारणाओं से जांचना परखना भी आवश्यक है!जिज्ञासा कमोवेश हर व्यक्ति में होती है इसका अर्थ यह है की वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मूल आधार सबमे निहित होता है केवल उसे अभ्यास की मदद से जीवन के साथ जोड़ना अपेक्षित है इस अभ्यास से व्यक्ति का मस्तिष्क अति जिज्ञासु और ग्रहणशील हो जाता है .सबसे आकर्षक बात यह है की कोई भी इसको अपना सकता है क्योंकि मनुष्य में अदम्य क्षमता है !

'स्वतंत्र भारत के लिए विज्ञानं'और वैज्ञानिक दृष्टिकोण नेहरू जी के मन में तब उपजे जब वे कारावास में थे ,हम जैसे ही कागज़ और प्लास्टिक का उदहारण लेकर समझते हैं की कागज़ का तो प्रकृति में पुनर्चक्रण हो जाता है पर प्लास्टिक का नहीं क्योंकि यह वर्षों तक ये प्लास्टिक मिटटी में पड़े रहते हैं और नष्ट नहीं होते तथा प्रकृति को नुक्सान भी पहुचाते हैनौर संतुलन बिगड़ते हैं ,यह तथ्य जानने के बाद जागरूक व्यक्ति को प्लास्टिक का न्यूनतम उपयोग या न के बराबर उपयोग करने की आदत दाल लेनी चाहिए 
भारतीय संविधान के मूल कर्तब्य के भाग 4क में वैज्ञानिक द्रिस्तिकों को स्थान देकर हमें चैतन्य किया गया है की यह दृष्टि मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का आवश्यक आधार है .
विज्ञानं की संकल्पनाएँ साधारण पढ़े लिखे लोगों के अधिक पल्ले नहीं पद पाती  पर भाषा और शैली साधारणतम  हो तो जटिल बातों को वे आसानी से समझ लेते हैं ,और नहीं समझते तो पढ़े लिखे वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले व्यक्तियों को समाज के साधारण लोगों और देश के लिए यह बीड़ा उठाना होगा की वे उन्हें जागरूक बनायें क्योंकि विकास की परिभाषा यही है की "चाहे कोई वैज्ञानिक हो डाक्टर हो ,न्यायाधिकारी हो ,प्रशाशनिक अधिकारी हो या कोई प्रचलित व्यक्ति हो उसे दंभ में झूमने के बजाय  आम आदमी के लिए उत्तरदायी होना होगा और उसे भी उत्तरदायी  बनाना होगा!"
भारत सरकार ने 1982 में विज्ञानं  एवं प्रौद्योगिकी विभाग ,भारत सरकार के अंतर्गत राष्ट्रीय विज्ञानं एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद् (एन सी एस टी सी )का गठन  किया जिसका उद्देश्य विज्ञानं को लोकप्रिय बनाकर समाज में वैज्ञानिक जागृति  लाना है !एन सी एस टी सी विज्ञानं को केंद्र में रखकर कार्यशाला ,संगोष्ठी ,नुक्कड़,नाटक ,टी वी,रेडियो ,धारावाहिक आदि जैसे कार्यक्रमों का आयोजन करता रहता है इसके लिए स्वायत्त संस्थान  "विज्ञानं प्रसार" की स्थापना की गई है ,और मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने "वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग" की स्थापना की है !
विद्यालयों से यह निवेदन है की बच्चों के अधिकार की वस्तुएं उन्हें उन तक पहुचाएं ,भारत सरकार की योजनाओं का लाभ उठायें और भ्रष्टाचार को पनपने से रोकें ! आप प्रश्न करेंगे तभी तो जवाब दिया जायेगा ! आप स्वतः  पहल नहीं  करेंगे तो भारत सरकार की योजनाओं में दीमक तो लग ही रहें हैं और लगते रहेंगे !सबसे अनुरोध है मेरा अपना काम इमानदारी और वैज्ञानिक सोच के साथ करें ,शिक्षकों से आशा है की वे सबका विकास करें अपना और समाज का क्योंकि यह वर्ग ऐसा वर्ग है जो 65 सालों से आराम ही कर रहा है और प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से आराम करने की सलाह भी दे रहा है ...

Monday, 19 November 2012

जनसँख्या स्थिरीकरण:तात्कालिक और दूरदर्शी आवश्यकता

                         जनसँख्या स्थिरीकरण:तात्कालिक और दूरदर्शी आवश्यकता  

जनसंख्या मानव समूह का ऐसा प्रखर पुंज है,जो निर्धारित भौगोलिक क्षेत्र में जैविक संसाधनों के अतिरिक्त प्राकृतिक व्यवस्था को बनाये रखते हुए; आर्थिक,सामाजिक,विकास के माध्यम से समस्त मानव जाति का अस्तित्व बनाये हुए है!जनसंख्या एक ऐसी समस्या भी है, जो लगातार पांव पसार रही है और इस समस्या से भारत वर्ष ही नहीं समस्त विश्व जूझ रहा है! जनसंख्या बढती जा रही है संसाधन घटते जा रहे है. विश्व की प्रतिवर्ष होने वाली जनसंख्या वृद्धि में भारत का योगदान लगभग एक करोड़ साठ लाख हुआ करता है. जबकि भारतवर्ष विश्व के उन प्रमुख देशों में से एक है जहां जनसंख्या वृद्धि  की विस्फोटक स्थिति को भांपते हुए 1952 में ही परिवार नियोजन की शुरुआत कर दी गयी थी और "जनसंख्या नियंत्रण,संतुलन और स्थिरीकरण" पर विस्तृत चर्चा भी की गयी थी.परन्तु. वर्तमान समय में इसका बहुत व्यापक असर दिखाई नहीं पड़ता.वैसे तो पहले एक भारतीय महिला प्रजनन आयु में औसतन 6 बच्चों को जन्म देने की क्षमता रखती थी . परन्तु अब यह घटकर 2.85 पर पहुंच चुकी है, फिर भी जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण नहीं हो पाया है इसका कारण यह पाया गया की अभी भी "अधिक जन्मदर तथा निम्न मृत्यु दर" की स्थिति में प्रजनन आयु वर्ग के दम्पत्तियों की संख्या का प्रतिशत कुल जनसंख्या के अनुपात में सर्वाधिक है और उसके आगे भी कुछ कारण हैं  जैसे -गर्भनिरोधन की सेवाओं का ना प्राप्त हो पाना,निरक्षरता इत्यादि मुख्य हैं.छत्तीसगढ़ का उदाहरण देना आवश्यक है यहां पर "जनसंख्या स्थिरीकरण"  शासकीय,अशासकीय  के समेकित समन्वित प्रयास से स्थापित किया जा रहा है.छत्तीसगढ़ की जनसंख्या भारत की कुल जनसंख्या का 2.03प्रतिशत है और यहां पर जनसंख्या  स्थिरीकरण के ऐसे कार्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं जिनमे महिलाओं की भागीदारी परिवार कल्याण कार्यक्रमों के प्रति सर्वाधिक है.90% महिलाऐं इनमे बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती हैं  परन्तु अब भी यहां 3 या इससे भी अधिक बच्चों को जन्म देने वाली माताओं का प्रतिशत 47.01 है. जबकि छत्तीसगढ़ में महिलाओं की साक्षरता का प्रतिशत है 52.28% है.इन बिन्दुओं पर सामाजिक स्तर पर रचनात्मक एवं ठोस पहल अत्यंत आवश्यक है .ये कार्यक्रम इसलिए 100 प्रतिशत सफल नहीं हो पा रहे हैं क्योंकि इसमें पुरुष सहभागिता की अत्यंत कमी है जो की अपेक्षित है.पुरुषों का सहयोग होगा  तभी जनसंख्या स्थिरीकरण की राष्ट्रीय नीति को सफल स्वरुप दिया जा सकता है !
सभ्यता की ओर उन्मुख मानव जाति "आहार ,आवास,वातावरण तथा प्राकृतिक सुविधाओं" को प्राप्त करने हेतु मानव समूहों को वर्गों में बांट-बांट कर भी वृद्धि कर रही है !इस विकास के साथ ही भौगोलिक क्षेत्र तथा प्रकृति के साम्राज्य में कटौती हो रही है .जो की आने वाले समय के लिए बहुत ही घातक है . 
जनसंख्या स्थिरीकरण की आवश्यकता क्यों है ?ये भारत वर्ष का लगभग हर व्यक्ति जानता है फिर भी स्पष्ट रूप से यदि देखा जाये और अधिक केन्द्रित होकर महसूस किया जाये तो तमाम कारण स्पष्ट होते हैं! जैसे- सामाजिक आर्थिक संतुलन बनाना,खाद्य सुरक्षा,बेहतर बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना,आवासीय समस्या का समाधान,निर्धनता और बेरोजगारी उन्मूलन, गांव से शहरों की ओर पलायन रोकना,सामाजिक शांति और सुरक्षा एवं समाज में नैतिक मूल्यों को बनाये रखने जैसे अति महत्वपूर्ण कारण है और देश की तात्कालिक समस्याओं में शुमार हैं !
22जुलाई 2002 को "जनसंख्या स्थिरीकरण कोष" का गठन का किया गयाथा, यह घोषणा प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग की पहली बैठक के संबोधन के समय किया गया था और 100 करोड़ रुपये प्रारंभिक पूँजी के रूप में उपलब्ध कराया गया! सामान्य लोगों को  नियमों और सुविधाओं की पहल के  द्वारा  प्रेरित करने के लिए विशेष प्रयास भी किये गए, वैसे तो राष्ट्रीय नीति का उद्देश्य 2010 तक दम्पत्तियों  की बच्चों की प्रजनन  संख्या को घटाकर  1.6 पर लाना था और प्रजनन शिशु स्वस्थ्य कार्यक्रम  को बहु आयामी बनाया जाना था पर लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सका. 
राष्ट्रीय नीति तो अच्छी है परन्तु इस कार्यक्रम के लिए "आम जनों का सहयोग" ही अधिक अपेक्षित दिखाई पड़ता है .देश के दम्पत्तियों को यह याद रखना होगा की यदि जनसंख्या स्थिरीकरण की वैचारिक उर्जा को वे ग्रहण करने में असमर्थ रहे तो अभावग्रस्त,अल्प सुविधाभोगी जैसे हर क्षेत्र में असुविधा झेलने की नियति को प्राप्त होंगे.नियति अभिशाप ना बन सके इसके लिए  जरूरी है की राष्ट्रीय नीतियों का पालन  "अच्छी और दृढ इच्छाशक्ति " से निभाने के  भरपूर प्रयास उन्हें करने होंगे वे एक सफल और दृढ मनोबल विकसित करें तभी हमारा देश जनसंख्या स्थिरीकरण के अपेक्षित राष्ट्रीय उद्देश्य को प्राप्त कर पायेगा और हम विकास की ठीक परिभाषा को ग्रहण कर पाएंगे .

लाल कोरिडोर और सरकारी अकर्मण्यता

                              लाल कोरिडोर और सरकारी अकर्मण्यता   
भारतवर्ष में कुछ खास वर्ग की अपनी न्याय प्रणालियों  को देखकर मै प्रायः विचलित हो जाती हूं जो हमारी न्याय व्यवस्था में यकीन नहीं रखते ,शायद यह उनकी ढीठता है या उनकी निरक्षरता या फिर  उनकी निराशा ?,उन्ही में एक बहुत बड़ा वर्ग नक्सलियों का है जिनके बारे में देश में तभी चर्चा होती है जब वे कोई कांड करते है जैसे किसी को किडनैप कर लेना या फिर अपनी मांगों के लिए उधम मचाना ,लेकिन मुझे लगता है की वो समस्याएं जो हमारी ज़िन्दगी के लिए "गले की हड्डी और शर्मसार करने वाली" हैं उनपर एक बड़ी नीति के माध्यम से विजय पाने के लिए निरंतर प्रयास होते रहने चाहिए ,देश में  नक्सलियों के निशाने पर तो  राज्यों के जनप्रतिनिधि और सुरक्षाकर्मी  रहे ही हैं लेकिन नक्सलियों के द्वारा पंचायत प्रतिनिधियों को भी धमकाना और गोली से उड़ाना एक निराशाजनक भाव है.  गृह मंत्रालय कई सालों से यह अवश्य मान रहा है की स्थानीय स्तर पर शासन और विकास के आभाव को दूर करके ही माओवादी चुनौती से निपटा जा सकता है ,परन्तु इसके क्रियान्वयन के लिए कभी भी देशव्यापी प्रयास या तो हुए नहीं या फिर जहां हुए हैं उनको माओवादियों के विरोध के चलते बहुत बड़ा धक्का लगा है ,लगभग हर बुद्धिजीवी को पता होगा की पिछले दिनों इन माओवादियों ने विदर्भ इलाके में निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों को अपने पद से सामूहिक इस्तीफ़ा देने की धमकियां देकर राज्य प्रशासन को खुले आम चुनौती दी थी जिसे हम  नक्सलियों का खौफ कह सकते हैं ,यही नहीं ये माओवादी अपने प्रभाव वाले इलाकों में न्याय अन्याय का फैसला भी कर रहे हैं ,उनका मानना है कि पंचायती राज व्यवस्था  और वर्तमान चुनाव प्रणाली से  विकास हासिल नहीं किया जा सकता ,उनकी दलील है की जिस तरह सांसद और विधायक चुनाव जीतने के बाद सरकारी धन की लूट कर रहे हैं ,उसी प्रकार पंचायतों के  नवनिर्वाचित जनप्रतिनिधि भी पद हासिल करने के बाद अपनी मनमानी कर रहे हैं !वैसे तो नक्सलियों के द्वारा जन-अदालत लगाकर लोगों को सजा देने की ख़बरें भी समय समय पर आती रहती हैं ,खासकर ऐसे व्यक्ति को जिसे स्थानीय अदालत ने साक्ष्यों की कमी के अधार पर बरी कर दिया हो !नक्सली संगठन के लोग न्यायधीश की भूमिका में मौत के फरमान सुनाते हैं ,वे कहते हैं की देश की अदालत ने तुम्हे बेशक दोषमुक्त किया है लेकिन ऐसा नहीं है की तुमने अपराध किया नहीं है ,हमारी अदालत में तुम्हारे ऊपर लगे हुए सारे आरोप सद्ध हुए हैं लिहाजा तुम मौत के सजा के हकदार हो! अक्सर सुनाई देता है अदालत ने संगीन जुर्म करने वाले ब्यक्ति को साक्ष्य और सबूतों की अपर्याप्तता के अधार पर बाइज्जत बरी कर दिया ,ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कभी अपराध करने वाला ब्यक्ति गवाहों को धमकाकर या क़त्ल कर अपने लिए रास्ता ढूंढ लेता है या फिर अधिक पैसे का लालच देकर गवाहों को खरीद लिया जाता है ,इसीलिए "पुलिस रेफोर्म" के लिए बनाई गई "मलिमथ समिति" ने सुझाव दिया था की गवाहों के मुकर जाने पर उन्हें अनिवार्य रूप से सजा हो और उनकी सुरक्षा का दायित्व भी पुलिस बल की वह शाखा करे जिस पर न्यायलय का नियंत्रण हो.
वैसे तो केंद्र सरकार की मंशा  इस मामले में हमेशा आग में घी डालने की रहती है,परन्तु नक्सलवादियों की जो पुरानी मांगे हैं उन पर विचार तो होना ही चाहिए जैसे- भूमि सुधार कानून को पूरी ईमानदारी के साथ लागू करने ,कृषि भूमि का सही वितरण करने, भूदान की जमीनों पर वास्तविक मालिकों का अधिकार दिलाया जाना चाहिए,विदर्भ में तो नक्सल पनपने का कारण मुझे राज्य सरकार और केंद्र सरकार कि लापरवाही ही लगती  हैं और कोई नहीं ,इतनी मन्त्रनाये करने के बावजूद "लाल गलियारे" निरंतर विस्तार ले रहे हैं! सत्ता में बैठे हुए लोग अपनी नीतियों की समीक्षा क्यों नहीं करते ?
वास्तविक बामपंथी कम्युनिस्ट क्रांतिकारी होने का दंभ भरते हुए सन1970 से ही नक्सल विद्रोही दर्जनों गुटों में बंट गए यहां तक कि इस आन्दोलन के मुख्य निर्माताओं में से रहे "सत्यमूर्ति और सीतारमैया" ने भी अपने आप को विचारधारात्मक असंतुष्टि के चलते पार्टी से अलग कर लिया, और आगे चलकर वेस्ट बंगाल के "मानिक" और कर्नाटक की तो पूरी पार्टी ही टूट गयी और अभी हाल में "सब्यसाची पांडा" को भी पार्टी के महासचिव गणपति ने सामान कारणों के कारण अलग कर दिया,नक्सलियों ने सदैव से ही कामरेड माओ की विचारधारा स्वयं को प्रेरित किया पर वास्तविक रणनीति में नक्सल लीडरशिप लैटिन अमेरिका के "चे ग्वारा के फोको आतंकवाद" का अनुसरण करती आई. चे ग्वारा ने क्यूबा में सशस्त्र समाजवादी क्रांति के दौर में "फोको आतंकवाद" की रणनीति विकसित की थी !ग्वारा ने दलील दी थी की गुरिल्ला सशस्त्र कार्रवाई की रणनीति से हासिल प्रचार द्वारा ही किसानो के बीच आधार क्षेत्र का विस्तार किया जाए और किसानो का सक्रिय समर्थन हासिल करने की कार्यनीति अपनाई जाये ,परन्तु नक्सल नेत्रित्व के पुरोधाओं खासकर "चारू मजुमदार और कोंडापल्ली सीतारमैया" ने सिर्फ सशस्त्र संघर्ष को ही महत्त्व दिया ,ग्वारा ने अपनी "पुस्तक चे ग्वारा" की महत्वपूर्ण प्रस्थापना में यह भी कहा की जिस स्थान पर शांतिपूर्ण विकल्प है, वहां फोको आतंकवाद की रणनीति कामयाब नहीं होगी पर ये पुरोधा यह सब नहीं समझते! 
राष्ट्र के किसानो के बीच जो असंतोष व्याप्त है उससे हताशा और निराशा का वातावरण बना हुआ है नक्सलियों से निपटने  के लिए भारतीय सरकार और कार्पोरेट जगत को अपने किसान विरोधी चरित्र का परित्याग करना होगा ,रिहाई के बदले रिहाई  नीति का एक खतरनाक पहलू है जिसके खामियाजे को सरकार को याद रखने की जरूरत है ,कानून के भी बहुत लम्बे हांथ छोटे पड़ रहे हैं ,हमारी बहुत नरम राज्य की छवि अपनी कमजोरी को खुलकर दिखा रही है और हमारा दुर्भाग्य ये है कि अलगाववाद,माओवाद,और आतंकवाद की स्थिति विस्फोटक होते जाने के बावजूद हम इस पर आम राय नहीं बना पा रहे हैं !
इस देशव्यापी मुद्दे पर भिन्न भिन्न प्रतिक्रियाएं दिखाई पड़ती हैं कुछ लोग उदासीन बनते हुए दिखाई पड़ते हैं जबकि कोई राज्य इसे अकेले समूल नष्ट करने की स्थिति में नहीं है ,आश्चर्य तो यह है कि पता  भारी भरकम शब्दावली को न जानने वाला ग्रामीण इस मुद्दे को वोट बैंक की राजनीति मानता है .