लाल कोरिडोर और सरकारी अकर्मण्यता

भारतवर्ष
में कुछ खास वर्ग की अपनी न्याय प्रणालियों को देखकर मै प्रायः विचलित
हो जाती हूं जो हमारी न्याय व्यवस्था में यकीन नहीं रखते ,शायद यह उनकी
ढीठता है या उनकी निरक्षरता या फिर उनकी निराशा ?,उन्ही में एक बहुत बड़ा
वर्ग नक्सलियों का है जिनके बारे में देश में तभी चर्चा होती है जब वे कोई
कांड करते है जैसे किसी को किडनैप कर लेना या फिर अपनी मांगों के लिए उधम
मचाना ,लेकिन मुझे लगता है की वो समस्याएं जो हमारी ज़िन्दगी के लिए "गले
की हड्डी और शर्मसार करने वाली" हैं उनपर एक बड़ी नीति के माध्यम से विजय
पाने के लिए निरंतर प्रयास होते रहने चाहिए ,देश में नक्सलियों के निशाने
पर तो राज्यों के जनप्रतिनिधि और सुरक्षाकर्मी रहे ही हैं लेकिन
नक्सलियों के द्वारा पंचायत प्रतिनिधियों को भी धमकाना और गोली से उड़ाना
एक निराशाजनक भाव है. गृह मंत्रालय कई सालों से यह अवश्य मान रहा है की
स्थानीय स्तर पर शासन और विकास के आभाव को दूर करके ही माओवादी चुनौती से
निपटा जा सकता है ,परन्तु इसके क्रियान्वयन के लिए कभी भी देशव्यापी प्रयास
या तो हुए नहीं या फिर जहां हुए हैं उनको माओवादियों के विरोध के चलते
बहुत बड़ा धक्का लगा है ,लगभग हर बुद्धिजीवी को पता होगा की पिछले दिनों इन
माओवादियों ने विदर्भ इलाके में निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों को अपने पद
से सामूहिक इस्तीफ़ा देने की धमकियां देकर राज्य प्रशासन को खुले आम चुनौती
दी थी जिसे हम नक्सलियों का खौफ कह सकते हैं ,यही नहीं ये माओवादी अपने
प्रभाव वाले इलाकों में न्याय अन्याय का फैसला भी कर रहे हैं ,उनका मानना
है कि पंचायती राज व्यवस्था और वर्तमान चुनाव प्रणाली से विकास हासिल
नहीं किया जा सकता ,उनकी दलील है की जिस तरह सांसद और विधायक चुनाव जीतने
के बाद सरकारी धन की लूट कर रहे हैं ,उसी प्रकार पंचायतों के नवनिर्वाचित
जनप्रतिनिधि भी पद हासिल करने के बाद अपनी मनमानी कर रहे हैं !वैसे तो
नक्सलियों के द्वारा जन-अदालत लगाकर लोगों को सजा देने की ख़बरें भी समय समय
पर आती रहती हैं ,खासकर ऐसे व्यक्ति को जिसे स्थानीय अदालत ने
साक्ष्यों की कमी के अधार पर बरी कर दिया हो !नक्सली संगठन के लोग न्यायधीश
की भूमिका में मौत के फरमान सुनाते हैं ,वे कहते हैं की देश की अदालत ने
तुम्हे बेशक दोषमुक्त किया है लेकिन ऐसा नहीं है की तुमने अपराध किया नहीं
है ,हमारी अदालत में तुम्हारे ऊपर लगे हुए सारे आरोप सद्ध हुए हैं लिहाजा
तुम मौत के सजा के हकदार हो!
अक्सर
सुनाई देता है अदालत ने संगीन जुर्म करने वाले ब्यक्ति को साक्ष्य और
सबूतों की अपर्याप्तता के अधार पर बाइज्जत बरी कर दिया ,ऐसा इसलिए होता है
क्योंकि कभी अपराध करने वाला ब्यक्ति गवाहों को धमकाकर या क़त्ल कर अपने लिए
रास्ता ढूंढ लेता है या फिर अधिक पैसे का लालच देकर गवाहों को खरीद लिया
जाता है ,इसीलिए "पुलिस रेफोर्म" के लिए बनाई गई "मलिमथ समिति" ने सुझाव
दिया था की गवाहों के मुकर जाने पर उन्हें अनिवार्य रूप से सजा हो और उनकी
सुरक्षा का दायित्व भी पुलिस बल की वह शाखा करे जिस पर न्यायलय का
नियंत्रण
हो.
वैसे तो केंद्र सरकार की मंशा इस मामले में हमेशा
आग में घी डालने की रहती है,परन्तु नक्सलवादियों की जो पुरानी मांगे हैं
उन पर विचार तो होना ही चाहिए जैसे- भूमि सुधार कानून को पूरी ईमानदारी के
साथ लागू करने ,कृषि भूमि का सही वितरण करने, भूदान की जमीनों पर वास्तविक
मालिकों का अधिकार दिलाया जाना चाहिए,विदर्भ में तो नक्सल पनपने का कारण
मुझे राज्य सरकार और केंद्र सरकार कि लापरवाही ही लगती हैं और कोई नहीं
,इतनी मन्त्रनाये करने के बावजूद "लाल गलियारे" निरंतर विस्तार ले रहे हैं!
सत्ता में बैठे हुए लोग अपनी नीतियों की समीक्षा क्यों नहीं करते ?
वास्तविक बामपंथी कम्युनिस्ट क्रांतिकारी होने का दंभ भरते हुए सन1970
से ही नक्सल विद्रोही दर्जनों गुटों में बंट गए यहां तक कि इस आन्दोलन के
मुख्य निर्माताओं में से रहे "सत्यमूर्ति और सीतारमैया" ने भी अपने आप को
विचारधारात्मक असंतुष्टि के चलते पार्टी से अलग कर लिया, और आगे चलकर वेस्ट
बंगाल के "मानिक" और कर्नाटक की तो पूरी पार्टी ही टूट गयी और अभी हाल में
"सब्यसाची पांडा" को भी पार्टी के महासचिव गणपति ने सामान कारणों के कारण
अलग कर दिया,नक्सलियों ने सदैव से ही कामरेड माओ की विचारधारा स्वयं को
प्रेरित किया पर वास्तविक रणनीति में नक्सल लीडरशिप लैटिन अमेरिका के "चे
ग्वारा के फोको आतंकवाद" का अनुसरण करती आई. चे ग्वारा ने क्यूबा में
सशस्त्र समाजवादी क्रांति के दौर में "फोको आतंकवाद" की रणनीति विकसित की
थी !ग्वारा ने दलील दी थी की गुरिल्ला सशस्त्र कार्रवाई की रणनीति से हासिल
प्रचार द्वारा ही किसानो के बीच आधार क्षेत्र का विस्तार किया जाए और
किसानो का सक्रिय समर्थन हासिल करने की कार्यनीति अपनाई जाये ,परन्तु नक्सल
नेत्रित्व के पुरोधाओं खासकर "चारू मजुमदार और कोंडापल्ली सीतारमैया" ने
सिर्फ सशस्त्र संघर्ष को ही महत्त्व दिया ,ग्वारा ने अपनी "पुस्तक चे
ग्वारा" की महत्वपूर्ण प्रस्थापना में यह भी कहा की जिस स्थान पर
शांतिपूर्ण विकल्प है, वहां फोको आतंकवाद की रणनीति कामयाब नहीं होगी पर ये
पुरोधा यह सब नहीं समझते!
राष्ट्र के किसानो के बीच जो असंतोष व्याप्त है उससे हताशा और निराशा
का वातावरण बना हुआ है नक्सलियों से निपटने के लिए भारतीय सरकार और
कार्पोरेट जगत को अपने किसान विरोधी चरित्र का परित्याग करना होगा ,रिहाई
के बदले रिहाई नीति का एक खतरनाक पहलू है जिसके खामियाजे को सरकार को याद
रखने की जरूरत है ,कानून के भी बहुत लम्बे हांथ छोटे पड़ रहे हैं ,हमारी
बहुत नरम राज्य की छवि अपनी कमजोरी को खुलकर दिखा रही है और हमारा
दुर्भाग्य ये है कि अलगाववाद,माओवाद,और आतंकवाद की स्थिति विस्फोटक होते
जाने के बावजूद हम इस पर आम राय नहीं बना पा रहे हैं !
इस देशव्यापी मुद्दे पर भिन्न भिन्न प्रतिक्रियाएं दिखाई पड़ती हैं कुछ
लोग उदासीन बनते हुए दिखाई पड़ते हैं जबकि कोई राज्य इसे अकेले समूल नष्ट
करने की स्थिति में नहीं है ,आश्चर्य तो यह है कि पता भारी भरकम शब्दावली
को न जानने वाला ग्रामीण इस मुद्दे को वोट बैंक की राजनीति मानता है .