संविधान ने सरकार को यह साहस दिया है कि विपरीत और आवश्यक परिस्थितियों में जनहित में अध्यादेश के माध्यम से विधि निर्माण किया जा सके ,परन्तु जब यह साहस विभिन्न क्षेत्रीय हितों को तुष्टिकृत करने में दुस्साहस में परिवर्तित हो जाता है,तो इससे संविधान की प्रतिष्ठा पर ठेस लगती है.जिससे मजबूत संविधान बहुत ही कमजोर प्रतीत होने लगता है .इन दिनों खाद्य सुरक्षा विधेयक पर चर्चा जोरों पर है सरकार जल्द ही इसे संसद में पेश कर सकती है इससे पहले ही सरकार अध्यादेश के रूप में जल्दबाजी में इसे ला चुकी है जिसमे जनहित कम सरकार के निजी स्वार्थ जो वोटों की महिमा पर आधारित हैं ज्यादा है.
वैसे तो सरकार को अपने नंबरों पर पूरा भरोसा है,जिसमे कुछ भी करके पास करा लेंगे का दृष्टिकोण साफ़ है परन्तु यदि ऐसा नहीं हो सका तो संविधान का मान मर्दन करने को सरकार पहले से ही तैयार है.
बताते चले की संविधान का अनुच्छेद 123 कहता है कि राष्ट्रपति को उस समय अध्यादेश द्वारा विधान बनाने की शक्ति है,जब उस विषय पर तुरंत ही संसदीय अधिनिमिति बनाना संभव नहीं है,उस स्थिति में सरकार जनहित में अध्यादेश लाती है परन्तु साथ ही अध्यादेश का जीवन काल पुनः समवेत होने की तारिख से 6 सप्ताह मात्र ही होता है,और इसके पश्चात यदि संसद इसे पारित नहीं करती है तो वह स्वतः निष्प्रभावी हो जाता है ऐसे में सरकार के पास एक मात्र रास्ता होता है जब अध्यादेश की अवधि समाप्त हो तो उसे दुबारा प्रख्यापित कर दिया जाए,परन्तु संविधान का 123 का खंड 1 यह कहता है "उस समय को छोड़कर जब संसद के दोनों सदन सत्र में हैं यदि किसी समय राष्ट्रपति का यह समाधान है की ऐसी परिस्थितियां विद्यमान हैं,जिनके कारण तुरंत कार्यवाई करना उसके लिए आवश्यक हो गया है तो यह ऐसे अध्यादेश प्रख्यापित कर सकेगा जो उन परिस्थितियों में अपेक्षित प्रतीत हों "परन्तु संविधान में 'तुरत कार्यवाई 'की कसौटी इतनी ही है की जिन परिस्थितियों के कारण विधान आवश्यक हो गया है वे इतनी गंभीर और आसन्न हैं की विधान मंडल को आहूत करने और विधान के सामान्य प्रक्रम में विधेयक को पारित कराने में जो विलम्ब लगेगा वह सहन नहीं किया जा सकता।परन्तु इस तकनीकी भाषा का भरपूर दुरुपयोग सरकारों ने समय समय पर खूब किया है,इसका एक साक्षात् उदाहरण डी सी वाधवा बनाम बिहार राज्य का मामला है ,इस मामले में एक याचिका कर्ता ने उच्चतम न्यायलय में एक तथ्य प्रस्तुत किया जिसके तहत बताया गया की बिहार में 1967 से 1981 के बीच कुल 256 अध्यादेश जारी किये गए,और विधान मंडल से बिना अनुमोदित किये बार बार जारी करके अध्यादेश को 14 वर्षों तक बनाए रखा गया ,केंद्र सरकार भी लगातार इन अध्यादेशों को मंजूरी देती गयी, तब उच्चतम न्यायलय की 5 न्यायाधीशों की पीठ ने इसकी आलोचना की और कहा की "यह विधान मंडल की विधि बनाने की शक्ति का कार्यपालिका द्वारा अपहरण है जिसे ऐसा नहीं करना चाहिए।इस शक्ति का प्रयोग असाधारण परिस्थितियों में किया जाना चाहिए,राजनैतिक उद्देश्यों से नहीं" न्यायलय ने बिहार राज्य को यह निर्देश दिया कि डी सी वाधवा को उनके शोध के लिए 10 हजार रुपये दिए जाएँ।एक दूसरा मामला कूपर बनाम भारत संघ का जिसमे उच्चतम न्यायलय ने यह मत दिया कि राष्ट्रपति के समाधान की वास्तविकता को न्यायालयों में संभवतः इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है की वह असद्भाव पूर्ण था.इस तरह भारत के उच्चतम न्यायलय ने कई अन्य मामलों में भी इन निर्णयों की पुष्टि की है ,ए के राय बनाम भारत संघ और ए वी नचाने बनाम भारत संघ के मामले।समय समय पर विभिन्न सत्तारूढ़ दल अध्यादेश के समर्थन में और विपक्षी दल विरोध में अपनी आवाज़ बुलंद करते रहे हैं,सत्तारूढ़ दलों को न्यायालयों का इस तरीके का हस्तक्षेप अपनी सत्ता पर प्रहार लगता रहा है इसलिए समय समय पर वे न्यायालयों के हाँथ बाँधने के प्रयास करती रही हैं. एक मामला उस समय का है जब श्रीमती इंदिरा गाँधी की सरकार 38वां संविधान संशोधन कर रही थी,जिसमे उन्होंने अनुच्छेद 123 में एक खंड जोड़कर अध्यादेश निर्माण में न्यायिक हस्तक्षेप को रोकना चाहा था परन्तु आने वाली जनता सरकार ने इस परिवर्तन को उलट दिया।हमारे यहाँ की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को देखकर ऐसा लगता है की अध्यादेश निर्माण की प्रक्रिया का ज्यादा दिनों तक दुरुपयोग नहीं हो सकेगा क्योंकि विभिन्न विपक्षी दल और गैर सरकारी संगठन इसका विरोध करते रहे हैं जिसके कारण सरकार को इतनी आसानी से साहस नहीं हो सकेगा यहाँ तक की हमारी लोकसभा ने भी नियम बना कर यह अपेक्षा की है कि जब कभी सरकार किसी विधेयक से अध्यादेश को प्रतिस्थापित करेगी तो ऐसे विधेयक के साथ एक कथन होगा जिसमे उन परिस्थितियों को स्पष्ट किया जाएगा जिसके कारण अध्यादेश द्वारा तुरंत विधान बनाना आवश्यक हो गया था ,इस प्रकार विभिन्न संसदीय और जन दबावों के कारण सरकार द्वारा इस शक्ति के दुरुपयोग की सम्भावना को रोका जा सकेगा।वास्तव में लोकतंत्र में महती आवश्यकता यह है की जन समुदाय पर्याप्त रूप से शिक्षित हो,ताकि वह समझ सके की कब सरकार अपने हित साध रही है,और कब जनता के हितों को साध्य बना रही है.