समाज के विज्ञान को जानने के लिए आइये सामाजिक विज्ञान का अद्धययन करते हैं !विज्ञान (वास्तविक रूप में )वाही है जो उत्पादक तथा सकारात्मक हो,विनाश का विज्ञान समाज एवं लोकहित से परे है .परन्तु हाल के दिनों में हमने समाज में घोषित सामाजिक सिक्षा के शिखर संस्थानों का सर्वाधिक विकृत रूप देखा है ,ये संसथान जिन्हें समाज में निहित बुराइयों पर शोध व् उनके समाधान की जिम्मेदारी सौपी गई थी परन्तु इन संस्थानों ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई !बल्कि ये संसथान एक ऐसे संगठन के रूप में उभरे है जिन्होंनेसंगठित रूप से ऐसे उत्पादों को जन्म दिया जो समाज में अलगाववाद ,बिखराव ,वैमनस्य को बढ़ावा दिया और देते जा रहे हैं !जबकि इनकी जिम्मेदारी अन्ध्विश्वाशों,पर चोट मारना था,पर उलटे ये विश्वाशों पर चोट मरते हुए दिखाई पड़ते हैं मै नहीं जानती हूँ की कौन से चश्मे"से ग्रस्त शिक्षक इन्हें शिक्षा देते हैं और कौन सा चश्मा लगाकर ये समाज में निकलते हैं ,इन्हें पहचानना बहुत ही आसान है क्योंकि क्योंकि ये सभी समाज को तोड़ने की बात करते हैं इनकी हर एक बात सामजिक ढांचे को तोड़ने की ही होती है।,ये शिक्षक और इनके शिष्य कभी किसी ऐसी बात का समर्थन नही कर सकते जो समाज में एकता को बढ़ावा दे !
जब मैं भारत में आधुनिक विचारक राजा राम मोहन रॉय को याद करती हूँ तो आज के इन उत्पादों और इनके उत्पादनकर्ताओं की विचार क्षमता पर पूर्ण संदेह व्याप्त हो जाता है !मोहन रॉय देश की सबसे बड़ी कुरीति सटी प्रथा का अंत किया पर किसी धर्म को गाली देते नहीं दिखाई दिए
मुझे आश्चर्य होता है की यदि आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तब तो वे सामाजिक विज्ञान के चिन्तक थे ही नहीं ?न इश्वर को गाली ,न अलगाववाद न विखराव न ही राष्ट्र की अवधारणा पर चोट न ही व्यक्तिवाद के लिए राष्ट्रवाद पर चोट और बिना इन सभी पर चोट किये बिना उन्होंने सामाजिक विज्ञान की इंजीनियरिंग कर डाली,,उद्देश्य क्योंकि उनका उद्देश्य अन्ध्विश्वाशों को हटाना थाकिसी को आहात करना नहीं था बल्कि वंचितों की सहायता करनी थी और राष्ट्र में सामाजिक एकता और सौहार्द्र को बनाये रखते हुए ,यही काम अन्य समाज सुधारकों ने भी किया ,दयानंद सरस्वती,स्वामी विवेकानंद,अरविन्द घोष,इत्यादि ने,,
पर आज के सामजिक विज्ञान के शिक्षक और उनके शिष्य ,और उन्हें सर पर चढ़ा देने वाले कुछ पत्रकार समाज सुधार की शुरुवात ही आक्रामकता से करते हैं फिर अतिवाद पर आते हुए गाली गलौच से गुजरते हुए राष्ट्र के अस्तित्व को ही चुनौती देते हैं ..मई सोचती हूँ की क्या यही बौद्धिकता है?
मेरा उत्तर भी मुझे मिलता है की यह सामाजिक व्यभिचार है बौद्धिक दिवालियापन है बस और कुछ नहीं !
परन्तु सच्चाई यह है की ये सामाजिक शिक्षक न तो समाज के जुड़ने से कोई वास्ता रखते हैं न ही समाज के टूटने से कोई वास्ता रखते हैं हाँ ये स्वतंत्रता की भौंडी मानसिकता के प्रचारक अवश्य होते हैं ये निरर्थक और अबूझ कला के प्रेमी होते हैं समाजवाद का जूनून मात्र इसलिए होता है की उभरते नए मीडिया के माध्यम से इतने बड़े देश की इतनी बड़ी जनसँख्या में से कोई भी मूर्ख इने सुनेगा तो इन्हें मानसिक शांति मिलेगी और थोडा मोड़ा प्रचार और नाम ये जिस बौद्धिक मल का स्राव कर रहें हैं निश्चित रूप से इसका सफाया आने वाले समय में मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है क्योंकि ये शिक्षक जैसी महत्वपूर्ण संस्था से सम्बंधित हैं ...हम क्या करेंगे ऐसे शिक्षकों का जो राष्ट्र की सबसे अमूल धरोहर युवाओं को भ्रमित कर रहे हो,हम क्या करेंगे ऐसे शिक्षकों का जो सिर्फ देश में कलह मचाने के लिए पीढियां तैयार कर रहा हो और उसे आधुनिकता की पौध मनाता हो ,हमें नहीं चाहिए ऐसे शिक्षक जो नवाचार के नाम पर व्यभिचार कर रहा हो देश को ऐसी सोच के शिक्षकों को अपदस्थ करना चाहिए ,ऐसे गुरुओं की खेती से कौन सा पौष्टिक आहार देश को प्राप्त होगा इस पर विचार होना ही चाहिए ,ऐसी पौध बड़े वृक्ष के रूप में देश को दुर्दिन ही दिखाएगी जिसके आसार दृष्टिगत होते हैं यदा कद।।।।पर आने वाले समय में ये पौध जंगल का रूप धारण कर चुकी होगी और देश की भूमि को बंजर होने कोई नहीं रोक पायेगा।।।जय हो भारत .
जब मैं भारत में आधुनिक विचारक राजा राम मोहन रॉय को याद करती हूँ तो आज के इन उत्पादों और इनके उत्पादनकर्ताओं की विचार क्षमता पर पूर्ण संदेह व्याप्त हो जाता है !मोहन रॉय देश की सबसे बड़ी कुरीति सटी प्रथा का अंत किया पर किसी धर्म को गाली देते नहीं दिखाई दिए
मुझे आश्चर्य होता है की यदि आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तब तो वे सामाजिक विज्ञान के चिन्तक थे ही नहीं ?न इश्वर को गाली ,न अलगाववाद न विखराव न ही राष्ट्र की अवधारणा पर चोट न ही व्यक्तिवाद के लिए राष्ट्रवाद पर चोट और बिना इन सभी पर चोट किये बिना उन्होंने सामाजिक विज्ञान की इंजीनियरिंग कर डाली,,उद्देश्य क्योंकि उनका उद्देश्य अन्ध्विश्वाशों को हटाना थाकिसी को आहात करना नहीं था बल्कि वंचितों की सहायता करनी थी और राष्ट्र में सामाजिक एकता और सौहार्द्र को बनाये रखते हुए ,यही काम अन्य समाज सुधारकों ने भी किया ,दयानंद सरस्वती,स्वामी विवेकानंद,अरविन्द घोष,इत्यादि ने,,
पर आज के सामजिक विज्ञान के शिक्षक और उनके शिष्य ,और उन्हें सर पर चढ़ा देने वाले कुछ पत्रकार समाज सुधार की शुरुवात ही आक्रामकता से करते हैं फिर अतिवाद पर आते हुए गाली गलौच से गुजरते हुए राष्ट्र के अस्तित्व को ही चुनौती देते हैं ..मई सोचती हूँ की क्या यही बौद्धिकता है?
मेरा उत्तर भी मुझे मिलता है की यह सामाजिक व्यभिचार है बौद्धिक दिवालियापन है बस और कुछ नहीं !
परन्तु सच्चाई यह है की ये सामाजिक शिक्षक न तो समाज के जुड़ने से कोई वास्ता रखते हैं न ही समाज के टूटने से कोई वास्ता रखते हैं हाँ ये स्वतंत्रता की भौंडी मानसिकता के प्रचारक अवश्य होते हैं ये निरर्थक और अबूझ कला के प्रेमी होते हैं समाजवाद का जूनून मात्र इसलिए होता है की उभरते नए मीडिया के माध्यम से इतने बड़े देश की इतनी बड़ी जनसँख्या में से कोई भी मूर्ख इने सुनेगा तो इन्हें मानसिक शांति मिलेगी और थोडा मोड़ा प्रचार और नाम ये जिस बौद्धिक मल का स्राव कर रहें हैं निश्चित रूप से इसका सफाया आने वाले समय में मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है क्योंकि ये शिक्षक जैसी महत्वपूर्ण संस्था से सम्बंधित हैं ...हम क्या करेंगे ऐसे शिक्षकों का जो राष्ट्र की सबसे अमूल धरोहर युवाओं को भ्रमित कर रहे हो,हम क्या करेंगे ऐसे शिक्षकों का जो सिर्फ देश में कलह मचाने के लिए पीढियां तैयार कर रहा हो और उसे आधुनिकता की पौध मनाता हो ,हमें नहीं चाहिए ऐसे शिक्षक जो नवाचार के नाम पर व्यभिचार कर रहा हो देश को ऐसी सोच के शिक्षकों को अपदस्थ करना चाहिए ,ऐसे गुरुओं की खेती से कौन सा पौष्टिक आहार देश को प्राप्त होगा इस पर विचार होना ही चाहिए ,ऐसी पौध बड़े वृक्ष के रूप में देश को दुर्दिन ही दिखाएगी जिसके आसार दृष्टिगत होते हैं यदा कद।।।।पर आने वाले समय में ये पौध जंगल का रूप धारण कर चुकी होगी और देश की भूमि को बंजर होने कोई नहीं रोक पायेगा।।।जय हो भारत .